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६४५] [कबीर

नक्षत्र के जल के लिए प्यासा रह कर व्याकुल रहता है उसी प्रकार आपके अभाव मे मेरा ह्रदय रात-दिन बेचैन बना रेहता है।कबीरदास की जीवात्मा कहती हे कि राम से मिलने के लिए मुझे अत्यधिक विकलता है। हे स्वामी राम! आप शीघ्र ही मुझ से मिले।

         अलंकार-(१)रुपक - विरह-अगिनि।
               (२)वकोक्ति-क्यू होइ सहाई।
               (३)उदाहरण-निस वासुर पियासा।
               (४)पदमैत्री-जराई सराई,उदासा पियासा।
          विशेष-(१)पद सख्या २२४ के समान।
          (२)समभाव के लिए देखे-
           वलि सांवरी सूरत मोहनी मूरत,आँखिन को कवौं आइ दिखाइए।
           चातक सी मरै प्यासी परी,इन्हैं पानिप रुप सुधा कवौं प्याइए।
                                      -भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
          (३)सगुण और साकार तथा अवतारी एव शरीरघारी भगवान की भक्ति

के वर्णन की भाँति निर्गुण और निराकार की भक्ति की व्यजना की गई है।

                          (२२६)
          मै सासने पीव गौंहनि आई।
          साई सगि साध नहीं पूगी,गयौ जोवन सुपिता की नांई॥टेक॥
          पंच जनां मिलि मज्प छायी,तीनि जनां मिलि लगन लिखाई ।
          सखी सहेली मगल गांवै,सुख दुख माथै हलद चढ़ाई॥
          नानां रंगै भांवरि फेरी,गांठि जोरि वाबै पति ताई।
          पूरि सुहाग भयौ विन दूलह,चौक कै रंगि धर्यौ सगौ भाई॥
          अपने पुरिप मुख कबहूँ न देख्यौ,सही होत समझी समझाई।
          कहै कबिर हूँ सर रचि मरिहूँ,तिरौं कत ले तूर बजाई॥
               
          [the last paragraph is not legible]