पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३३७

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६५२ 1 [ कबीर अन्तिम पक्ति का अर्थ एक अन्य प्रकार भी किया जा सकता है। कबीर कहने हैं कि मैंने यह जीवन सूत्र अच्छी प्रकार काता है । मुझे यह सामान्य चरखा नहीं अपितु परम पद का दाता… साधन घाम मोक्ष का द्वार…प्रतीत हुआ है। अलंकार…(1) सागरूपक ८ पूरे पद मे (11) पुनरुक्ति प्रकाश लै लै। (III) छेकानुप्रान-चारि चमरख, काति कातै। (IV) गूढोक्ति - निसतरिबो कैसें । (V) अपन्हुति - रहटा नही परम पद दाता। (VI) पदमैत्री- लाई चलाई, ऐसै कैसै, काता दाता। बिशेष - I) पाठान्तर -चौथी पक्ति-द्यो माल तागा बरिस दिन कूकूरी, लोग बोलै मन कातल वपुरी। (II)सासू हमका अभिप्राय गुरु के उपदेशं-श्रवण से उत्पन्न 'वोघबुत्ति' भी हो मकता है। (III) विन कातै नित्रर्ता'वो कैसे-इमका अभिप्राय यह भी हो सकता है" मनन, निविध्यामन, निरन्तर के नाम स्मरण एव अनुराग के बिना इस जीवन मे निम्बार नहीं है (IV)कबीर जुलाहे का काम करते वे । यहां उन्होंने जुलाहे के काम आने वाली गामयी को नेकर प्रनोंक-बिघान किया है । यह प्रतीक विधान सर्वथा सार्थक और मफन हैं । जीवन सचमुच एक चरखा है जिसकी सार्थरुता सुन्दर सूत कातने मे दी है। झान और भक्ति मय जीवन ही मानव-योनि की सार्थकता है । मानव- तन बटे भाग्य मे गिनता । यह पाप का हेतु भी हो सकना है और मोक्ष का द्वार भी बनाया जा थकता है । कबीर कहते हैं कि मैंने इसको परम पद प्राप्ति का भावन वधा भिया हैं' । तुमभी मेरै अनुभव भे लागान्दित होने का प्रयत्न करो।

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अब की धारी मेरो धर करलो, गाय भगति ले मौकों तिरसि टेक ।

पहली को चाल्यो भरमत टोरुयौ, सच कबहूँ नहीं पायौ

अब की घरनि घरी जा दिन थे, सगली भरम गमायौ ।

पहनी मापी:- है- दा दुद्रलघतौ सासू सुसरा मांनै

देवर जेठ "सचनि की प्यारी पिय कौ मरम न जांनै १।

झट की घगनि धरों जा दिन थे, वीय सू' बीने संधु' रे।

ढहे गइ वीरु भ ता बयुरी कौ, आडरु रमि सुन्यू' रे।