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ग्रन्थावलली ] [६५३

मोह | देवर जेठ = अहकार वासनायम मन इत्यादि बहान | बन्यू = बालक बन गया | ठीक-ठीक निवहि हो रहा हे | बपुरी=बेचारी|

     संदर्भ - कबीरदास ज्ञानोदय की अवस्था का वर्णन करते हैं |
     भावार्थ - सावक जीव कह्ता है कि मैंने गुरु के उपदेश के फलस्वरूप निवृत्ति (बोध - वृत्ति) रूप स्त्री को पत्नी रूप मे रख लिया है | इसके ढग को देखकर मुझे विश्वस् हो गया है कि यह मेरा घर बसायेगी और साधु-सगति के द्वारा यह मेरा उध्दार करेगी| मेरी पेहली पत्नी प्रवृत्ति (धसक्ति) थी| उसके मारे तो इधर-उधर भटकता फिरता रहा और मुझे कभी भी सुख प्राप्त नही हुआ अथवा कभी भी सत्य का साक्षात्कार नही हुआ| अबकी बार जिस दिन से मैंने इस गृहिणी को रखा (निवृत्ति मार्ग को अपनाया है) उसी दिन से मेरा सम्पूर्ण भ्रम नष्ट हो गया है| सासारिक आसक्ति रूप पहली पत्नी कुल की मर्यादा का बहुत ध्यान रखने वाली थी| वह मायामोह रूप सास-श्वसुर का कहना मानती थी| वह अहकार एव वासनामय मन रूपी देवर तथा जेठ को प्रिय थी| परन्तु वह जीव रूप अपने पति की वास्तविक आवश्यकता को नही समझती थी| परन्तु अबकी बार जिस दिन से मैंने निवृत्ति (बोध वृत्ति) रूपी इस नवीन गृहिणी को अपनाया है, उसी दिन से मेरा वानक वन गया है - मेरे जीवन मे सामञ्जस्य उपस्थित हो गया है| कबीर कह्ते है कि यह इस बेचारी का ही सौभाग्य है कि भगवान राम ने सुन ली है अर्थात् मेरी वृत्ति राम के प्रती हो गई है|
अलकार: १। साग रूपक - सम्पूर्ण पद।
        २। पदमैत्री - घाल्यौ डोल्यौ।
        ३। चपलातिशयोक्ति की व्यजना-अवकी
        ४। छेकानुप्रास् - घरनि-घरी, बाँन् बन्यू।

विशेष - १। लोक प्रचलित उक्ति है।

      २।पारिवारिक जीवन के प्रतीको को लेकर बहुत ही सुन्दर रूपक खडा किया है।
      ३।पहली नारि मानै - यह सत्य है कि कुल वशी नारी को मर्यादा के निर्वाह की बहुत अहकार भी रेह्ता है और ध्यान भी रेह्ता है। फलत, वह पति के लिये बडा सिर दर्द बनी राह्ती है। वह केवल अपनी मर्यादा का ध्यान रखती है। वह यह नही देखती है कि मेरे पति की सीमाये क्या है और उसके आग्रह पर कुल मर्यादा के निर्वाह मे पति को कितनी व्यथा हो रही है। शुद्ध चैतन्य का अधिष्ठित एव सम्पूर्ण  विश्व मे व्याप्त मूला अविद्या की ही यह तूला अविद्या ( आसक्ति) पुत्री है। अत बडे कुल की पुत्री होने के कारण यह कुलवती (कुलीन) है और इस वह कुलीनता के प्रति वह सदैव सजग रहती है।
      ४।जीव मूलत ज्ञान-स्वरूप एक निसग है। मूल अविद्या उसको उस दिशा मे नही बढ्ने देती है। पर जाग्रत बोध-वृत्ति जीव का वास्तविक स्वरूप की प्रतिष्ठा