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ग्रन्थावली ] [६५५

अपने प्रियतम की प्यारी हो पाऊगी । अर्थात तब मेरे समस्त अज्ञान नष्ट हो जायेगे । मैने खूब सोच-विचार करके देख लिया है कि अब इस ससार से छुटकारा पाने का अवसर आ गया है । कबीर कहते हैं कि मेरी बुव्द्धि रूपी सुन्दरी,अब तुम स्वामी राम के साथ रमण करो।

      अलंकार-(।) रूपकातिशयोक्ति अलकार-अनेक प्रतीकात्मक उपमनो
                 का प्रयोग है।
           (॥) विशेपोकत्त्कि की व्यजना - सेजै देखो ।
          (॥।) विरोधाभास वाप लराई।
           (।V) पदमैत्री-सहेली,गहेली ।
            (V) अनुप्रास-माया मद मतवाली ।
      विषेश-(।) सेजै रहूँ ... देखों-ईश्वर और जीव का शाश्व्त् अभेद

है। यह फिर भी अज्ञान् द्वारा आव्रुत्त हो जाने के कारण जीव ईश्वर से विलग सा बना रहता है। अज्ञान के कारण ही जीवात्मा प्रभु का साक्षात्कार नही कर पाता है ओर दुखी बना रहता है-

        ईश्वर अस जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ।
        सो मायावस भयउ गोसाईं । ब्ँध्यौ फरि मरकट की नाई ।
        तव ते जीब भयउ संसारी । छूठ न ग्रथि न होइ सुखारी । 
                                         (गोस्वामी तुलसीदास)
   (॥) अन्तिम पत्त्कि का अर्थ एक अन्य प्रकार भी किया जा सकता है। आत्मा

या विवेक रूपी सुन्दरी अपने आपको सम्बोधन करके कहती है कि, 'रे सुन्दरी अब तुम विषयाशक्ति का कुपरिणाम देख चुकी। अब तुम भगवान राम के साथ रमण करो ।

  (॥।) दाम्पत्य भाव का आवरण इस विरह-वेदना का बिम्ब विधायक बन

गया है ।

  (।V) यहाँ अद्धं प्रवुद्ध जीवात्मा द्वारा अपनी वृद्ध अवस्था एवं मुक्त्त् होने की

विकलता का मर्मस्पर्शी एव सागोपाग वर्णन कराया गया है ।

  (V) यह पद उलट्बाँसी जैसा है। अन्तिम  पक्त्ति मे पद की कुँजी मिल जाती 

है। पहले चरण मे मति (बुद्धि) की शिकायत है और अत मे उसी को सही दिशा मे उन्मुख किया गया है ।

  (।X) तुलना करें -
       एकहि पलग पर कान्ह रे , मोर लख दूर देस मान रे।
                                               (विद्यापति)
                      (२३१)
      अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी,
            ताथै भई पुरिष थै नारी ॥ टेक ॥