पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३४२

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विशेष--(१)माया के ससारी तथा तात्विक रूप का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है ।

     (२)यह पद उलतटवासी जेसा है । इसमे परस्पर विरोधी बाते कह कर अनिवंचनीय माया के स्वरूप की व्याख्या की गई है ।
    (३) कबीर के मतानुसार नारी ही माया का व्य्क्त स्वरूप है । व्यग्य वह हे कि माया से वचने के लिए साधक को 'नारी' से दुर  रहना चाहिए । नारी से सपृक्त् होते ही ब्रहा शुद्धबुद्ध चेतन न रह कर 'जीव' भाव को प्राप्त हो जाता है ।
   (४) विविध मनोविकार ही माया के पुत्र है ।
   (५) माया का पीहर मोह या आज्ञान है । इसकी ससुराल 'आत्मज्ञान' है। 
   (६) तुलमी प्रभृति भक्त कवियो ने भी माया को नारी बताया है--
      माया भगति सुनहु तुम दोऊ। नारिवर्ग जाने सब कोउ ।
   यह माया सबको अपने वश मे करने वाली है--
       यन्मायावशवति विश्वमखिलं ब्रहमादिदेवासुरा ।
       यत्सत्नादमृषंव भाति सकल रज्जौ यथार्भ्रम ।
   (७)ना हूँ  घोहारी--परम पुरूष से विवाहित होने, का तात्पर्य हे चंतन्य के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाना अर्थत माया का अभाव । यदि माया चंतन्य से पूणंत असम्प्तक्त रहनी हे,तो कुमारी कह्लानी चाहिए । परन्तु ऐसा भी नहीं हे । इसी कारण ब्रहा की भाँति ब्रहा की माया भी अनिवचंनीय हे ।
     माया हमेशा अनेक पुत्रो को जन्म देती रहती हे । इसका तात्पर्य यह हे कि वह सब जीवो के जीवभाव का कारण हे । यह चंतन्य-पुरुष के साथ सहवास का ही परिणाम है ।
     माया ने किसी को नही छोडा, परन्तु कोई भी इसको भोग नही सका । ठोक हि हे-" भोगा न भुक्त वयमेव भुक्त."। माया असतु रूप है। अपत का भोग कया? अतएव जीव कभी भी माया का भोग कर ही? हि पाता है, माया का  भोग भी मायाजनित भ्रम ही हे । पारमर्थिक हष्टि से असत माया कभी भी चंतन्य का स्पशं नही कर पाती हे। अत सवंव्यापी है। 
   (८)वाहान  फिरौ अकेली--ब्रहाण आदि के साथ माया क सत्य सम्बन्घ नही हो पाता है--जीवात्मा का सम्बन्घ होता ही नही है। इसी कारण वह अकेली हि रहती है। वह किसी से वद्ध नही है--न जीव से न व्रहा से। इसी से वह न पीहर जाती है और न ससुराल ही जाती है। माया की हष्टि से आवागमन भी मिथ्या है।
    (९)पुरपहि.....न छुवाऊ --इन पक्तियो मे माया की च्रर्चा वस्तुतः एक वेश्य के रूप मे की गई है। वह भी एक चतुर पातुरी के रूप मे,जौ शरीराग का का स्पभ्ं नही करने देती हे ओर नजरो से ही दिल वहलाती रहती है।