पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३४५

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चोखी वनज व्योपार करीजै,

   आइने दिसावरि रे रामं जपि लाहौ लीजै ||टेक॥ लग देखौ हाट पसारा,

जब लग देखौ हाट पसारा, उठि मन वणियो रे, करि ले बणज सवारा || वेगे हो तुम्हे लाद लदांनां ,

   औघट घाटा रे चलनां दूरि पयांनां |

खरा न खोटा नां परखानां,

   लाहे कारनि रे सब मूल हिरांनां ||

सदल दुनी मौ लोभ पियारा,

   मूल ज राखै रे सोई बनिजारा ||

देस भला परिलोक विरानां ,

   जन दोइ चारि  नरे पूछौ साघ सयांनां || 

सायर तीर न वार न पारा ,

   कहि समझावै रे कबीर वणिजारा |

शब्दार्थ- चोखो=चोखा,अच्छा, लाभकारी | वनज=वानिज्य| दिसावरि= देसावर,विदेश| लाहो=लाभ| हाट= वाजार| सवारा=सिदोपी,जल्दी ही|औघट=अवघट=अटपटा| पयाना=प्रमण,चलना,जाना| वेगे=शीघ्र ही| लाहे=लाभ| मूल=मूलघन,गाठँ की पूँजी| हिराना=गवाँना| खोगया,नष्ट हो गया| ववनिजारा=वाणिज्य करने वाला| सयाना=चतुर| सायर=सागर| तीर=किनारा| सदंर्भ- कबीर कहते है कि इस संसार मे रह कर धर्मपूर्ण आचरण ही हितकारी है| भावार्थ- कबीर जीव की तुलना एक व्यापारी वणिक के साथ करते हुए पहन हे कि जीव| तुमको अच्छा- लाभकारी वाणिज्य व्यापार करना चाहिए| हम विदेश म आकर भगवान राम के नाम का स्मरण करते हुए लाभकारी व्यापार करना चाहिए| जब तक युग जगत और जीवन के बाजार का अपना जब जब जीवन रूपी बाजार चल रहा है, उसी समय मे तू उठकर