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ग्रन्थवली] {६६१

दुनियाँ मे लोभ सबको प्यारा है अर्थात सारा संसार लोभी है। व्यंजना यह है कि लाभ का लोभ कोई बुरी बात नही है। परन्तु सफल व्यापारी वही है जो अपने मूलधन की रक्षा कर ले। अर्थात् जो अपने चैतन्य स्वरूप को बनाए रखे उसी जीव का जीवन सार्थक है। अपना देश ही अच्छा है, विदेश तो पराया ही रहता है। यह बात तुम दो चार साधु और समझदार व्यक्तियो से भले ही पूछ लो। इस पंंक्ति का अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि इस जगत् मे दो चार ही भक्त है। भले ही सयाने साधुओ से पूछ कर देख लो। उनका भी यही मत है। इस भवसागर के किनारे का कही भी आदि अत नही है- तू ऐसे सागर के तीर पर खङा है जिसका वार-पार नही है। कबीरदास इस जीवरूपी बनिए को यह बात समझाकर कह रहे है।

             अलन्कार-(१) सागरूपक- पूरा पद।
                     (२) रूपकातिशयोक्ति सागर।
             विशेष- (१) राम की भक्ति के द्वारा ही यह जीवन सार्थक बनाया जा सकता है और इस भव-सागर के पार जाना सम्भव हो सकता है।
                   (२) जब लग-सवारा-रे जीव अपने कर्तव्यो को शीघ्र ही पूरा कर ले।तुम्हे अपने पारमार्थिक कल्याण के लिए पूर्ण प्रयास करना है। साधना का यह मार्ग अत्यन्त दुर्गम है। वह स्थान भी द्रुश्यमान जगत से विलक्शन है। अतः औघट घाट है। वह स्थान सन्सार की वासनाओ से दूर भी है।
                     (२३५)
      जो मै ग्यान विचार न पाया,
             तौ मै यौही जन्म गँवाया॥ टेक॥
          यहु संसार हाट करि जांनूं, सबको बणिजण आया।
          चेति सकै सो चेतौ रे भाई भुरिख मूल गँवाया॥
          थाके नैन बैन भी थाकै, थाकि सुन्दर काया।
          जांमण मरण ए द्वै थाके, एक न थाकि माया॥
          चेति चेति मेरे मन चंचल, जब लग घट मै सासा।
          भगति जाव पर भाव न जाइयौ, हरि के चरन निवासा॥
          जे जन जांनि जपैजग जीवन, तिनका ग्यांन न नासा।
          कहै कबीर वँ कबहूँ न हारे, जांनि न ढारे पासा॥

शब्दर्थ- हाट=बाजार,पेठ,व्यापार करने की जगह्। भक्ति=स्थूल भक्ति= बाह्याचार = औपचारिक भक्ति। भाव=भक्ति-भाव। पासा=चौसर के खेल मे फेंका जाने वाला वह चोपहला लम्बोतरा हद्दी या लकडी का बना टुकडा जिस पर बिन्दिया बनी होती है। पामा ढारना= विरोधी को हराने वाला,दांव लिना।