पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३४७

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संदर्भ - कबीरदास मच्ची भक्ति के स्वरूप और उसकी महिमा का वर्णन करते हैं |

भावार्थ - कबीर कहते हैं कि अगर मैंने ज्ञान का रहस्य न सभक्ता, तो मैंने अपन जीवन व्यघं ही गैवा दिया | मै तो इस संसार को कर्म रूपी व्यापार स्थल (हाट) करके जानता हैं और यहाँ समस्त प्राणी कर्म-व्यापार के हेतु आए हैं | हे जीव,सजग होकर समझ सको, तो सावधान होकर समझ लो | मूर्ख लोग इस ससार रूपी हाट मे आकर अपने मूल (गाँठ की पू जी) को भी गँवा देते हैं - अर्थात् वे अपने चैतन्य स्वरूप को विस्म्ऱुत कर बैठते हैं | इस कर्म-व्यापार मे नेत्र, वाणी, सुन्दर शरीर - सब थक जाते हैं | उनके जन्म-मरण भी थक जाते हैं अर्थात् व्यक्ति बार-बार जन्म लेते-लेते और मरते-मरते भी ऊब जाते हैं, परन्तु यह माया - ससार के प्रति आमक्ति नही थकती है| हे मेरे चंचल मन, जब तक इस शरीर मे प्राण हैं तब तक (इनी बीच मे) तू सावधान होकर वस्तु-स्थिति को समझ ले | चाहे औपचारिक भक्ति न कर सको, परन्तु भक्ति की भावना बनाए रखना जिससे भगवान के चरणो मे मन का निवास बना रहे | जो लोग संसार के प्राणाधार भगवान के वास्तविय स्वरूप को समझ कर प्रभु का स्मरण करते हैं, उनके ज्ञान और विवेक नष्ट नही होते हैं| कबीरदास कहते हैं कि जो जानवूक्त कर किसी को पराजित करने का प्रयत्न नही करते है, उसकी इस जीवन मे कभी पराजय नही होती है | अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति विरोधी भाव या शत्र भाव से रहित है, उनकी सदैव विजय ही विजय होती है | अलंकार (१) रूपक - ससार हाट | (२) रूपकतिशयोक्ति - वणिजन, मूल | (३) पदमैत्री - नैन वैन, जाव भाव | (४) अनुप्राम - याके याकै याकी, जे जन जानि जपै जग जीवन | कहैं कबीर कबहू्ं | (५) पुनरूक्ति प्रकाश - चेति चेति | (६) विरोधामभास - भागति जाव पर भाव न जइयी | (पदोप - धार नैन । । माया | तुसना करें - माया मरी न मन मरे मरि मरि जात सरीर | जाना व्ऱुष्णा ना मरी कह गए दाम कबीर |