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ग्रन्थवली ] [ ६६३
सो अनन्य गति जाके मति न टरह अनुमंत । मै सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत । (रामचरितमानस) (॥।)जानि न दारै पासा--जगत के प्रति सेवा का भाव होने के कारण विरोध-भावना अथवा द्वैत भाव स्वयमेव समप्त हो जाते है । धर्मशील एव सच्चे भक्त का लक्षण ही यह है कि विपक्षी की भावना निर्मुल हो जाए और सब आत्मीय प्रतीत होने लगे--- सखा धर्ममय अस रय जाके । जीतन कहे न कतहुँ रिपु ताके । महा अजय ससार रिपु जीति सकइ सो वीर । जाके अस रथ होइ टृढ सुनहु सखा मति घीर । (रामचरितमानस,तुलसी) इसी से कबीर ने कहा कि जीतता वही है जो किसी को हराने का प्रयत्न नही करता है ।
(२३६) लावौ बाबा आगि जलावौ घरा रे, ता कारनि मन धंधे परा रे ॥ टेक ॥ इक डांइनि मेरे मन मे बसै रे,नित उठि मेरे जीव को डसै रे । या डांइन्य के लरिका पांच रे,निस दिन मोहि नचाँवे नाच रे ॥ कहै कबीर हुं ताकौ दास, डांइनि कै सगि रहै उदास । शब्दार्थ--लावो==लाओ । घराने=घर,काम मनस ससार।धंधे=झ्झ्ट,बन्धन। डाइन=चुडैल।
डसै=डसती है,काटती है । पाँच लडके=काम,क्रोध,लोभ,मोह,मत्सर। नाच नचाना=परेशान करना ।
संदर्भ-कबीर विषयासक्ति से विरत होने का उपदेश देते है । भावर्थ--हे बाबा । मुझे ज्ञान की अग्नि ला दो,जिससे मै विषय-वासनाओ
के घर काम-मनस( )को जलाकर भस्म करदूँ। इसके कारण ही यह मन अनेक बन्ध्नो मे पडा हुआ है । आसक्ति रुपी एक चुडैल मेरे मन मे घुस कर बैठ गई है , वह नित्य प्रति अपना सिर उठा कर मेरे अन्त करण को काटती-कचोटती है । इस चुडैल के काम क्रोध,लोब,मोह और मत्सर-नामक पाँच लडके है,जो मुझे दिन-रात तरह से परेशान करते रहते है। कबीर कहते है कि मै उस व्यक्ति का दास हूँ अथवा उस व्यक्ति को अपना गुरु बनाने को तैय्यार हूँ जो इस आसक्ति रूपि चुडैल की और न तो ध्यान देता हूँं और न उससे प्रभावित ही होता हूँ ।
अलकार--(।) रुपकातिशयोक्ति--आगि,घर,डायनि,लरिका पच । विशेष--(।)मुहावरा--नाच नचाना । (॥)आसक्ति पर विजय अत्यन्त कठिन है ।