पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

झूठा लोग कहैं घर मेरा | जा घर मांहैं बोलै डोलै, सोई नहीं तन तेरा || टेक || बहुत बंध्या परिवार कुटुंब मै, कोई नही किस केरा | जोवत ऑषि भूंदि किन देखौ,ससार अव अँधेरा || बस्ती मै थै मारि चलाया, जंगलि किया बसेरा | घर कौं खरच खबरि नही भेजी,आप न कीया फेरा || हस्ती घोड़ा बैल बांहणी,सग्रह किया घरगोरा | भीतरि बीबी हरम महल मै, साल मिया का डेरा || बाजी की बाजीगर जांनै के बाजीगर का चेरा | चेरा कबहूँ उझकि न देखै, चेरा अधिक चितेरा || नौ मन सूत उरझि नही सुरझै,जनमि जनमि उरझैरा | कहै कबीर एक राम भजहु रे, बहुरि न ह्वैगा फेरा || श्ब्दार्थ-वध्या=ववे हुए | केरा= का | वाहणी = सवारी | हरम= अन्त पुर | सन्दर्भ- कबीर ससार की असारता का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि जीवन की सार्थकता भगवद-भजन मे ही है | भावार्थ-हे जीव, दुनियाँ के लोग व्यर्थ ही कहते है कि यह घर मेरा है| जिस शरीर रूपी घर मे यह जीव बोलता है और क्रियाशील रहता है,वह शरीर भी तुम्हारा नही है| तुम परिवार और कुटुम्ब के प्रति बहुत आसक्त हो, पर यह नही जानते हो कि कौन किसका है - अर्थात तुम यह नही जानते हो कि कोई किसी का नही है | तुम अपने जीवन मे आँख बन्द करके देखलो | तुम्हे चारो ओर अंधेरा ही अंधेरा दिखाई देगा | कहने का अभिप्राय यह है कि तुम एक बार झूठ-मूठ ही मर कर देखो | तुम्हे ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारा कोई नही है| मृतक तुल्य व्यक्ति को मार कर शहर के बाहर निकाल देते हैं और उसको जंगल मे रहना पडता है | वह भी घर को न खर्च भेजता है और न खबर ही भेजता है| सब लोग उसको इस प्रकार भूल जाते हैं कि घर लौट कर आने को इसका मन ही नही होता है | वह फिर लौट कर आता ही नही है |

   हाथी, घोडे, बैल, बैली (सवारी) कितने भी घन का सग्रह किया जाए,सब व्यर्थ है | महल के अन्तपुर के भीतर विषय भोग के लिए पत्नी एव सुन्दरियाँ रहती हैं, परन्तु मृततुल्य पति को अब वहाँ स्थान नही रह जाता है| उन्हे महल के बाहर परकोटे मे कही न कही स्थान दे दिया जाता है| जीवन के इस विचित्र व्यवहार को देखकर कबीर कहते हैं कि यह जगत केवल एक तमाशा है | इसे या तो ईश्वर रूपी बाजीगर समझाता है अथवा उसका भक्त कोई तत्वज्ञ ही जानता है| चेता स्वय बहुत बडा चित्रकार या बाजीगर बन जाता है| वह स्ंसार-रूपी