पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३५७

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दृ ७ २ ] [ कबीर

जागि जागि नर काहे सोवै, रोइ सोइ कब जागैगा | जब घर भीतरि चोर पड़ेगे, तब अंचलि किसके लागेगा ।। कहै कबीर सुनहु रे सतौ, करि त्यों जे कछु करणां । लख चौरासी जोनि फिरोंगे, बिनां रांम की सरनां ।। शब्दार्थ-जाति जाती-व्यर्थ जाते हुए । जीया-जीव । चरन = पांव । कर= हाथ । घारे=क्षीण हो गये, थक गये । आउ=आयु । सदर्भ- कबीरदास जीव को रामभक्ति की ओर प्रेरित करते हैं । भावार्थ- रे जीव । जीदत्त व्यर्थ जाते हुए देखकर भी यदि तूने भगवान का नाम नही लिया तो बाद मे तुम्हे पछताना पडेगा । ससार के घन्धी को करते- करते मेरे हाथ-पाव दुर्बल हो गए है, आयु घटती जा रही है और शरीर क्षीण हो गया है । विषय-विकारों के प्रति तू सदैव अनुरक्त रहा और माया-मोह मे उलझा रहा, अर्थात् मैं मेरा' के चक्कर में पडा रहा । रे जीव । जायजा । अज्ञान निद्रा में क्यो नो रहा है । आखिरकार ड्स अज्ञान-रूपी निद्रा को तू कब छोडैमाँ ? अर्थात् यदि अब भी नही जागा, तो आखिर कब जागेगा ? जव इस शरीर रूपी घर में यम-दूत रूपी चोर तेरे जीवन को ले जाने के लिए घुस आँयेंगे, तब तू उस समय अपने रक्षार्थ किसकी शरण में जायगा ? कबीर कहते हैं कि है सतो । सुनो जो कुछ भगवान्नाम-स्मरण करना है, उसे कर लो । राम की शरण में गए बिना तुमको बार-बार जन्म लेकर चौरासी लाख योनियों में निरन्तर भटकते रहना पडेगा | अलंकार-(१) पुनरुक्तिप्रकाश-जगि जागि । (११) रुपकातिशयोक्ति-घर चोर । (१११) गूडोक्ति- अंचलि किसके लागेगा 1 विशेष--'निर्ये;' सचारी भाव की मार्मिक व्यजना है । ( २४५ ) माया मोहि मोहि हित फीन्हा, ताय मेरी ग्यान ध्यान हरि लीन्हा ।। टेक ।। संसार ऐसा सूपिन जैसा, जीव न सुपिन समन। दृरेंच फरि नरि गांठि बान्धियो, छाडि परम निर्धान ।। नन नेट पतंग हूलने पसू न पेरवै आगि । पानं परमि जु मगद बाध्या, फनंपद्र फँमिनी लागि ।। फरि विचार विफार परहरि, तीरण तारण सोइ | करै कबीर गधुनाव भगि नर, छूजा नाही फोइ || भरदयर्च न्मदृ-ध्वनंगाग्रनुमेंन्न प्रश्न है दृ दृ-ट्टूदृदृदृम्भकिंदृ द्गदृम्भ है । पाशिज्ज दृड़-फदृ. द्वारा द्र चश्चिरि. न्याम दृ । मौग्गदृदृदृदृदृडेपृ, मृङ्गदृड्डादृ । ८५४८; गाधी दाग 1 झमृब्जेर्दबाछतृचंइक हूँ