पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्रंथावली ] [ ६७३

सन्दर्भ-ख-जबर कहते हैं कि माया द्वारा मोहित "नुब्ध को समझ लेना चाहिये कि एक मात्र राम-भज्ञन द्वारा ही उनका उद्धार सम्भव है ।

भावार्थ- जीव कहता है कि मैंने मुग्ध हो-होकर माया से ग्रेम किया । इसी कारण उसने मेरा ज्ञान (आत्म-बोध) एव विवेक (ईश्वर का ध्यान) हरण कर लिया । यह संसार ऐसा अस्थायी है जैसा स्वप्न होता है और यह जीवन स्वप्न की भाँति जिया है । परन्तु फिर भी मैंने परम निधान (सबके आश्रय) प्रभु को छोडकर सगा को सच्चा समझकर गाँठ में बाँधा अर्थात् सासारिकता के प्रति अनासक्त हुआ 1 पर्तिगा नेत्रों की वासना की तृप्ति के फलदृवरुप पतगा प्रसन्न होता है और इस विषय-सुख के कारण वह पशु उनकी ओर जाते समय यह नहीं देखता है कि अग्नि उसको जला देगी । हे मूर्ख जीव । तू जो काल-पाश में बाधा गया है, वह कनक और कामिनी के प्रति अनासक्त होने के कास्या वाघा गया है । कबीर कहते हैं कि तू विचार करके काम, क्रोध, लोभ, मोह. मदादि विकारों को छोड दे और रघुनाथजी का भजन कर । वहीं ससार से तारने वाले हैं-नाव भी हैं और तारने वाले भी हैं । इस जगत में अन्य कोई ऐसा नही है जिसका आश्रय ग्रहण किया जा सके । अलंकार- (1) उपमा-मसार सुपिन ऐसा, जीवन सुपन समान । (11) पुनरुक्ति प्रकाश-मोहि मोहि । (111) रूपक-काज-पास । (जि) उदाहरण--) नेह " लागि । (प) छेकानुप्राम-नैह नेह, तिरपा तारण । (ग्ना) अनन्वय की व्यजना-दूजा नाही कोइ । (शा) वृत्यानुप्रास-माया मोहि मोहि, पतग पसू देखे 1 (३/111) पदमैत्री-सुपिन जीवन, करि विचार विकार । विशेष---") निर्वेद एव वैराग्य का प्रतिपादन है । (गा कबीर एक ज्ञानी भक्त की भाँति भच्चावदृभजन का उपदेश देते हैं ।

( २४६ ) ऐसा तेरा- झूठा मीठा लागा, साथ साचे सू मना भागा ।। टेक ।। झूठे के धरि भरें" आया, झूठा सान पकाया । झूठी सहन क झूठा गाह्या, झूठे झूठा खाया । झुहंमृ ऊठण झुठा बैठण८ झूठी सबै सगाई । भूत के धरि झुठा राता, साचे को न पत्याई ।। कहै कबीर अलह का पगुरा, साचे सू मन लाबी । झूठे केरी सगति त्यागी, मन बछित फल पावों ।। ३ज्जा४र्थ‘३…मृहन८म्नहनंक्र=थालौ । वाहुया=कियश्वा । पगुरादृव्रच्च; ।