पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३६६

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ग्रंथावली [ ६८१

ही अपनी जड़ काटती है अर्थात् श्रपने उद्गम स्थल व्रहा से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है| हरि की भक्ति बिना यह देह विपयो के पीछे दौड-धूप करते हुये नष्ट हो गैई है| कबीरदास चेतावनी देते हुये कह्ते है कि हे जीव, तू काम,क्रोध,मोह, मद और मत्सर की ओर ध्यान मत दे और साधुओ की सगति करो तथा राग के नाम का गुणगान करो।
                अलंकार--(१) उदाहरण- जैसे"' वामी।
                        (२) वक्रोक्ति- जनमत ' जासी।
                विशेष-(१) जङ फाटी, धव लौटे- मुहावरो का सुन्दर प्रयोग है।
                 (२) व्य को चाहिए कि वह ससार के प्रति आस न होकर भगवान की भक्ति करे। साधु-सगति एव भगावणणन्नाम-स्मरण के व्दारा मिध्यात्व का विश्वास होता है ओर उसके प्रति आस्क्ति समाप्त हो जाती है। 
                          (२५४)
रे जम नांहि नवै व्यौपारि,
  जे भरे जगाति तुम्हारि॥ टेक॥

वसुधा छांडि बनिज हम कीन्हो, लाधो हरि को नांऊ । रांम नांम की गूंनि भराऊं, हरि कै टांडै जांऊं ॥ जिनकै तुम्ह अगिवानी कहियत, सो पूंजी हम पासा । अबै तुम्हारो कछु वल नांही,कहै कबीरा दासा ॥ शब्दार्थ-- जगाति=पेशावर से अने वाले माल पर लगने वाला कर,आयात कर। गूनि= वोरा ।टाडै=साथं, कारवो, काफिला। अगिवानी= आगे-आगे चलने वाले।

सन्दर्भ -- कबीर ज्ञान प्राप्ति की दशा का वर्णन करते है। भावार्थ-- हे यम! ह्म वे व्यापारि नही है जो तुम्हारी चुगी दे। मैंने ससार के प्रति आसक्ति का परित्याग करके आत्म-बोघ मे जीवन लगाया है(निज व्यापार किया है) और मैंने हरि नाम की खेप लादी है अर्थात् मेरे मन-मानस मे हरि-नाम व्याप्त है। मेंने राम-नाम रूपी सामाग्री से जन्म रूपी वोरी भर ली है और हरि भक्तो के काफिले(समूह) के साथ(मोक्शधाम) को जाऊंगा (जिन भगवान के नाम पर तुम जीवधारियो को लिवा ले जाने के लिये आते हो, वे उन भगवान की भक्ति रूपी पूंजी ही हमारे पास है(जिस पर तुम्हारा कोई इजारा नही है) कबीर दास यमराज को सम्बोधित करके केह्ते है कि अब हमारे ऊपर तुम्हारा कोई वश नही चलेगा( पिछले जन्मो की बात अब नही रही है। )

      अलंकार-- (१) रूपक= रामनाम की गूनि ।
                (२) गूढोवित= नाहिन वैव्यापारी।
      विशेष-- (१) जे धरे जगाति- अज्ञान के कर्म पाप-पुण्य होते है। उनके अनुसार यम जीव का हिसाब किताब लेकर उसको नरक-स्वर्ग भेजते है। परन्तु