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[ कबीर
 

राम सो खरो है कौन मोसो कौन खोटो ।

(गोस्वामी तुलसीदास)

(111) लहग दरिया-ब्रह्माण्ड मे से सत्र्वित रस धारा को चवीं का दरिया कहना युक्ति सगत ही हैं । एवं- हैं लु ति विदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरे ।

( २५१ )

अलह रांम जीऊँ तेरे नाँंई,
        
बदे ऊपरि मिहर करौ मेरे सांई । टेक ॥
क्या ले माटी भुँइ सू मारे, क्या जल देह न्हवायें ।
जोर करै ससकीन सतावै, गु न हीं रहै छिपाये ।।
क्या तु जू जय भजन कीये, दया मसीति सिर नांयै ।
रोजा करे निमाज गुजारें, बया हज काबै जांयें ।।
ब्रांह्मंण ग्यारसि करै चौबीसों, काजी महृरम जांन ।
न्या२ह मास जुदे क्यू कीये, एकहि मांहि समांन 1।
जौर खुदाइमसीति बसत है, और मुलिक किस केरा ।
तीरथ मूरति रांम निवासा, दुहु मै किनहू न हेरा ।।
पूरिव दिसा हरी का वासा, पछिम अलह भुकांमा ।
दिल ही खोजि दिलै दिल भींतरि, इहां राम रहिमांनां ।।
जेती औरति मरदा कहिये, सब मैं रूप तुम्हारा ।
कबीर पंगुड़ा अलह रांम का, हरि गुर पीर हमारा ।।

शब्दार्थ- नाई =नाम पर । वदे-रोवक पर, दास पर । मिहर=मेहर यानी । नाई= ग्यामी । मिट्टी= शरीर भु ट सू मारै= जमीन पर पटका जाए । गेह गरै जून्म करता है । ममकीन= दीन, दुःखी । मजन= मज्जन, शरीर की नंनर्दाग शुद्धि रे लिए मन पटते दृए कुशादि रो जल छिडकना । मसीति= मस्जिद । -द्वा-नजर ।

'३८८- निशान गान पा ढाबे दर्शन और प्रदक्षिणा वद्गरना, मपके की ८४३१४ ।

ग्गबादृम्लदृर्ग यौ एक चौकोर दृषत्मा दिदृणझी नीव द्दआद्वीम की रखी हुई मानी "गनों है । म्पग्रंग्ग कुंज्ञर्दग मूनपणाप्रे गाल का पहला डाहीना जिसकी दनंवी नाग्नरैष पंगे टंगागहूँगेन धत्रीद त्रुए ३1 । पृभिबं८८८मुदृरू, पगार । हेग । पंगुडा इन्द्र ६१८ ३३५४८' । ब्धदृर्म- १२3४३' यांणानंश्च की निरान्दित्तब्ब बनाएँ? हुए श्यायान की अनाथ दृदृनि का द्रहँप्याटन्द 'न्त्रर्दड़ हैं : माँऊँयँदृर्द- ३३ 3३3३१? हूँ ३' मृपांदृ है मैं द्रगुटट्टम्पूरा नाम मांट्यण ८३१३३ जी बाँग है" है ट्वेंमृ दैदृमृ" द्रम्पूदृत्री दृणदृरै दृइव्र 3८८४३? ८7 सुंग झनंट्वि दृ भी दृम्पादृहैंपृदृ त्रुव्रदृदृ ११८7३? दृ गिर्द: को "परा 3' और ग्नम्माणस्त्र (भू १1५८३; दृ-पृकूठदृदृ है के दृदृफुम्भ टारुदृहैंट आज्ञा' था

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