पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६९६ ] [ कबीर

                                (२६५)

मन रे जब ते राम कह्यौ, पीछे कहिबे कौ कछू न रह्यौ || टेक || का जोग जभि तप दांनां, जौते रांम नांम नही जांनां || कांम क्रोध दोऊ भारे, ताथै गुरु प्रसादि सव जारे|| कहै कबीर भ्रम नासी, राजा रांम मिले अविनसि ||

सन्दर्भ -कबीर राम-नाम की महिमा का वर्णन करते हें|

भवार्थ- रे मन, जब से तूने राम नाम कहना आरम्भ कर दिया है उसके बाद अन्य कुछ कहने के लिए रह ही नही गया हे | (उसी मे सब कुछ कह दिया है ।) यदि राम के नाम का महत्त्व न जाना, तो योग, जप, तप तथा दान करने से क्या लाभ है ? काम और क्रोध दोनो अत्यंत प्रबल होते हैं । इसलिए मैंने गुरू की कृपा से उन्हे नष्ट कर दिया है । कबीरदास कहते हें कि काम क्रोध के समाप्त हो जाने के फलस्वरूप मेरे समस्त भ्रमो का नाश हो गया है और अब मुझे अविनाशी भगवान राम की प्राप्ति हो गई है ।

विशेष - जब तक 'काम' है, तव तक विकार है । जब तक विकार हैं तब तक मोह एवं भ्रम का रहना स्वाभाविक ही है । यही माया का प्रपंच है । समभाव के लिए देखें- ध्यायतो विषयन्प्र स. सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गरत्सजायते काम कामास्कोधोउभिजायते I क्रोधाद्भवति संमोह समोहत्समृतिविभ्रम। स्मृतिभ्र शाट्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणसश्यति। रागद्देषवियुक्त्स्तु विषयानिनिद्रिश्यचरन। आत्मवश्ययैविघेयात्मा प्रसादमघिगच्छगित।

                    (श्रीमदभगदूगीता -२ / ६२-६४)
                         (२६६)

रांम राइ सा गति भई हंमारी,

          मो पै छूटल नहीं ससारी || टेक ||

यूं यखी उडि़ जाइ आकासां, आस रही मन मांही | छूटी न आस टूटचौ नहीं फंधा, उडिबौ लागा कांही || जो सुख करत होत दुख तेई, कहत न कछू बनि आवै| कु'जर ज्यू' फसतूरी का मृग, आपै आप बँधावै|| कहै कबीर नही बस मेरा, सुनिये देव मुरारी| इत भैभीत डरौ जम दूतनि, आये सरनि तुम्हारीं || शब्दार्थ-लागौ काही=क्या लाभ ?