पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्रन्यावली ] [ ६९७ संदर्भ-- कबीर दुख-निवृत्ति हेतु भगवान की शरण को एक मात्र अवलम्बन मानते हैं । भावार्थ-- रे राजा राम | मुझसे ससार का मोह छो़डते नही बनता है मेरी भी हालत उस पक्षी की तरह हो गई हैं जो आकाश मे ऊचा उड तो जाता है परन्तु भोजन-चायना के कारण उमका मन पृथ्वी से बंधा रहता है। मन से वामना जाती नही है । दृस कारण मोह का बंधन टूटना नही है | तब आकाश में उडने से ज्ञान-ध्यान से वया लाभ है ? मैं जो काम सुख-प्राप्ति के लिए करता हू, वे दुख के हेतु बन जाते हैं । जैसे हाथी हथिनी के प्रति मोह के कारण अपने आपको बंधा देता है तथा कस्तूरी-मृग सुगन्ध की वासना के वणीभूत होकर इधर-उधर भटकता रहता है, वैसे ही जीव भी मोह एवं वासनाओं के कारण अपने आपको सामारिक प्रपचो मे फंसा देता है तथा अपनी वासनाओं के वशीभूत होकर चारो ओर भटकता फिरता है । कबीरदास कहते हैं कि हे मुरारी। मेरी प्रार्थना सुनो । सांसारिक वासनाओं पर मेरा कोई वश नही चल रहा है | में सांसारिक बन्धनो से भयभीत हू तथा यम के दूतो से डरा हुआ हू। इसलिए तुम्हारी शरण मे आया हूॉ | अलंकार - (1) उदाहरण-सोगति मनमाही | (2) अन्योन्य-छूटी न आस ----फदा। (3) गूढोक्ति-लागौ काही। (4) विरोधाभास -जो सुख--- दुख तेई। (5) सम्बन्घातिशयोक्ति-कहत न--- आवै। (6) उपमा-कु ज़र ज्यूॉ कस्तूरी का मृग |

                        (२६७)

रांम राइ तू ऐसा अनभूत अनूपम, तेरी अनभै थे निस्तरिये | जे तुम्ह कृपा करौ जगजीवन, तौ कतहू भूलि न परिये ।। टेक || हरि पद दुरलभ अगम अगोचर, कथिया गुर गमि बिचारा | जा कारंनि हम ढूढत फिरते, आथि भरयो ससारा || प्रगटी जोति कपाट खोलि दिये, दगघे जंम दुख द्वारा | प्रगटे विस्वनाथ जगजीवन, मैं पाये करत विचारा || देख्यत एक अनेक भाव है, लेखत जात अजाती | बिह कौ देव तवि ढूंढत फिरते, मडप पूजा पाती|| कहै कबीर करुणांमय किया, देरी गलियां बहु विस्तारा | रांम कै नांव परंम पद पाया, छूटै विघन चिकारा || शब्दार्थ-अनभै=अनुभूति। गमि-अनुभूति द्वारा प्राप्ति । आखि= व्याप्त । जात= जन्मा । अजाती=अजन्मा । विह=उम ।तत्र=पहले गालिया= विभिन्न मत-पथ |