पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/३८४

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ग्रन्थावली ] [६११

    ब्रह्मा एक जिनि सिष्टि उपाई,नांव कुलाल धराया|
    बहु बिधि भांडै उनहीं घदिया, प्रभू का अन्त ना पावा ॥
    तरबर एक नांनां बिधि फलिया,ताकै मूल ना साखा|
    भौजलि भूलि रह्मा रे प्रांणीं ,सौ फल कदे ना चाखा ॥
    कहै कबीर गुर बचन हेत करि,और न दुनियां आथी|
    माटी का तन मांटी मिलि है|सबद गुरु का साथी॥
  
    शब्दार्थ--कुलाल=कुम्हार |भांडै =वर्त्तन |घडिये=गढ़े, वनाए|भोजलि=भव-जल,संसार रूपी जल|कदे=कभी |आथी=अस्तित्व वाली|
    
    संदर्भ--कबीर संसार की निरर्थकता तथा गुरु की महिमा का प्रतिपादन करते हैं|
    भावार्थ--हे राम-ऐसा वैरागी बहुत कठिनाई से मिलता है जो विपयो को छोडकर भगवान के भजन मे मग्न रहे|एक ब्रह्मा हुए जिन्होने स्पष्टी उतपन्न की और अपने आपको कुम्हार कहलवाया|उनहोने अनेक शरीर रूपि बर्तनो को बनाया,परन्तु वह भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को नही जान सके|संसार रूपि एक वृक्ष मे अनेक प्रकार की विषय-वासनाओ के फल लगे है|इस वृक्ष की न जड है और न उसके शाखाएँ ही हैं|यह प्राणी संसार के इन फल रूपि विषयो की मृग तृष्णा के जल मे अपने वास्तविक स्वरूप एवं वास्तविक लक्ष्य को भूला हुआ है|विषय रूपी ये फल उसको खाने के लिये कभी नही प्राप्त होते है अर्थात् वह विषयो के द्वारा सच्चे सुख की प्राप्ति कभी नही कर पाता है |कबीरदास कहते है कि गुरु के वचनो पर विश्वास करो |शेष संसार अस्तित्वहीन(मिथ्था) है|मिट्टि का यह शरीर मिट्टि मे ही मिल जाएगा। केवल गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान ही हमारा सच्चा साथी है|
  अलंकार--(I)वत्रोक्ति-को एसा वैरागी|
          (II)रूपकातिक्श्योक्ति-कुलाल,भडे ,तरवर|
          (III)निदर्शना-भोजल चाखा|
          (IV)विभावना-तरवर एक साखा|
          (V)रूपक-भोजल|
   विशेष--(I)निर्वेद सचारी का व्यंजना है|
         (II)तुलना किजिए-
      जगु देखन तुम पेखन हारे|विधि हरि सभु नचावन बारे|
     तेउ ना जानइ मर्म तुम्हारा|और तुम्हे को जाननि हारा|  
                   (२६१)                                                          
 
 नेक निहारि हो साया बीनती करै , 
  दीन बचन बोले कर जोरे ,फुनि फुनि पाई परै||टेक||