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७००] [कबीर

    कनक लेहु जेहु जेता मनि भावै, कामिनि लेहु मन हरनी।
    पुत्र लेहु विद्या अधिकारि, राज लेहु सब घरनीं॥
    अठि सिघि लेहु तुम्ह हरि के जनां, नवै निधि है तुम्ह आगै।
    सुर नर सकल भवन के भूपति, तैऊ लहै न मांगै॥
    तै पापणी सबै संघारे, काकौ काज संवारचौ।
    जिनि जिनि सग कियौ है तेरौ, को येसासि न मारचौ॥
    दास कबीर रांम के सरनै, छाडी भूठी माया।
    गुर प्रसाद साध की संगति, तहां परम पद पाया॥

शब्दार्थ- फुनि फुनि- पुन: पुन:, बार बार । कनक = स्वण। कामनि= कामिनि स्त्री। ये सासि= विसश्वास।

    सन्दर्भ- कबीरदास ज्ञान दशा का वर्णन करते है। 
    भावार्थ- माया भगवान के भक्तो से प्रार्थना करती है, अत्यन्त दीन वचन

बोलती है और बार-बार पैर पडती हुई कहती है हरि भक्तो! जरा मेरी ओर कृपा की दृष्टि कर दो। जैसा और जितना सुवर्ण चाहिए ले लो,सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य ले लो। आठो सिद्धियॉ और नव निधियॉ ले लो। हे हरि के भक्तो जिन वैभवो और सिद्धियो को देवता,मनुष्य एवं सम्पूर्ण पृथ्वी के राजा मागने पर भी प्राप्त नही कर पाते हैं, वे सब तुम्हारे समक्ष तुम्हारी सेवा मे प्रस्तुत हैं। भक्त जन उत्तर देते हुए कहते है कि हे पापिन तूने सबको नष्ट किया है। क्या तूने आज तक किसी का काम बनाया है? जिन-जिन लोगों ने विश्वास करके तेरा साथ किया है उन सबको तूने विश्वासघात करके मारा।" भक्त कबीर का कहना है कि वह तो भगवान राम की शरण मे है। उन्होंने झूठी माया को त्याग दिया है। गुरु की कृपा और साधु जनो की सगति के द्वारा कबीर ने परम पद प्राप्त कर लिया है।

    अलंकार--(I) गूढोत्तर- पूरा पद। 
           (II)पुनरुत्ति प्रकाश- पुनि-पुनि।
           (III)मानावीकरण- माया। 
           (IV)पदमैत्री- लेहु जेहु लेहु।
            (V)विशेषत्कि की व्यजना- लहै न माजै।
    विशेष--(I)प्रश्नोत्तर शैली मे माया और भक्ती के पारस्परिक सम्बन्ध का सुन्दर निरुपण है। इसमे उपनिषध का प्रभाव स्पष्ट है। 
       (II)कबीर बताते है कि माया ज्ञान प्राप्ति की अन्तिम अवस्था तक प्रलोभन देकर साधक को पथ भ्रष्ट करना चाहती है। इसी से तो कहते हैं कि सिद्धि के प्रत्येक फूल के पीछे वासना का सर्प छिपा रहता है। वह जाने कब सिर निकाल कर काट ले। इसी कारण साधक को अन्त समय तक सावधान रहने का उपदेश दिया जाता है।