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ग्रन्थावली]
(२) रुपकातिशयोक्ति - यिप| (३) पुनरुक्ति प्रकाश - वनि वनि | (४) निदर्शना - पानी आगि न लागै | (५) ह्र्प्टान्त - जे तुम्ह भीजै | विशेष--(१) इस पद पर उपनिषद की प्रश्नोत्तर शैली के व्दारा ज्ञान तत्व का प्रतिपादन है | (२) इसमे कबीर के चरित्र की शुध्दि एव ह्र्ढता व्यग्ति है । (३) ना किसी का दैनां समभाव देखे- काहू की वेटी सो बेटा न व्याहव काहू की जाति विगारैं न सोऊ | झंगि कै खैवो मसीत को सोइबौ, लेवे को एक न देबै को दोऊ | (गोस्वामी तुलसीदास) (२७१) ताकू रे कहा कीजै भाई, तजि अमृत विषैसू ल्यो लाई || टेक || बिष सग्रह कहा सुख पाया, रचक सुख कौं जनम गँवाया || मन बरजै चित कह्गौ न करैइ, सकति सनेह दीपक मै परई || कहति कवीर मोहि भगति उमाहा, कृत करणीं जाति भया चुलाहा || शब्दार्थ-सकति=आसत्कि । सन्दर्भ कबीरदास कहते है कि आसक्ति के वशीभूत जीव अपन नष्ट् कर देता है | भावार्थ-उस व्यक्ति के लिए क्या जाए उसको किस प्रकार समझया जाए, जे राम-भक्ति रुपी अमृत को छोड कर विपयासक्ति रुपी विषय के प्रति आकर्षित रहता है? जीव को इन्द्रिय भोगो के सग्रह से क्य सुख मिल सकता है? ऐसा व्याक्ति जरा से क्षणिक सुख के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन को नप्ट कर देता है। मन (विवेक वुध्दि) के मना करने पर भी उसका प्रवृत्यात्मक चित नही मानता है और वह आसक्ति के वशीभूत होकर विपयरुपी दीपक मे गिर जाता है । कबीर कहते है कि मेरे हृदय मे भक्ति का उत्साह जाग्रत हो गया है ।जाति का जुलाहा मैं अपने कर्मो के व्दारा कृत-कार्य हो गया हूँ । अर्योत, मैं जुलाहा जसी निम्न जाति मे भले ही उत्पत्र हुआ, परन्तु भक्तिपूर्ण आचरण करके मैंने अपना जीवन सार्थक कर लिया है । अलकार-(१)गूढोक्ति-ताकू भाई, विष, पाया । (२)विशेषोक्ति की व्यजना-मन'करई।