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{{rh|ग्रंन्थावली|[७११|}}
है । कबीर की विचार-धारा (मगन-सरीरा आदि) हमे तो एक दम उसी के अनुकूल दिखाई देती है---
तदर्पिता खिला चारता तद्विस्मणे परमव्याकुलतेति। सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च। (२७६) रांम राइ इहि सेदा भल मांनै,' जै कोई रांम नांम तत जांनै ॥ टेक ॥ रे नर कहा पषालै काया, सो तन चीन्हि जहां थे आया ॥ कहा दिभूति जटा पट बाँधें, काजल पैस हुतासन साधें ॥ र रांम मां दोई अखिर सारा कहै कबीर तिहूं लोक पियारा॥'' शब्दार्थ---तत==तत्त्व ,रहस्य । पपालै==प्रक्षालित करता है, धोता है।
पट==वस्त्र । हुतासन==अग्नि,हवन करना अथश पचाग्नि की साधना ।
सन्दर्भ---कबीरदास राम नाम की महिमा का वर्णन करते है । भावार्थ---जिसको राम-नाम के तत्व का ज्ञान है, उसी की सेवा (भक्ति)को
भगवान राम अच्छा समभ्कते हैं । रे मानव ! तू इस शरीर को क्यो धो रहा है? उस परम तत्त्व को जानने का प्रयत्न कर जो तेरा उद्गम कारण है अर्थात् जहाँ से तेरा जन्म हुआ है। भस्म रमाने, जटा रखने तथा विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करने से क्या होता है? तीर्थो के जल मे स्नान करने से अथवा पचाग्नि मे तपने से किंवा हवन करने का भी कोई उपयोग नही है ।'रकार' और 'मकार' अर्थात् 'राम' ये दो अक्षर ही सार पदार्थ हैं। कबीर कहते हैं कि तीनो लोको में ये दो अक्षर हो प्रिय वस्तु हैं--ये ही सुन्दर एक मगलकारी है।
अलकार--(१)गोढोक्ति--रे नर आया। (११)वत्र्कोक्ति--कहा पपालै साधे। (१११)पदमैत्री--बाँधै साधै। विशेष--(१)वाह्याचार का विरोघ है । (११)ज्ञान-लक्षण भक्ति ही श्रेष्ठ है। (१११)'राम-राम' के स्मरण मे ही जीवन की सार्थकता है। तुलना कीजिए--- आखर मधुर मनोहर दोऊ। वरन बिलोचन जन जिय जोऊ । सुमिरत सुलभ सुखद सव काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू। * * * एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब वरननि पर जोउ। तुलसी रघुवर नाम के वरन विराजत दोउ। * * * राम नाम मनिदीप घरु जीह देहरी द्वार । तुलसी भीतर वाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार। - गोस्वामी तुलसीदास