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७१२] [कबीर
(२५०) इहि विधि रांम सू ल्यौ लाइ | चरन पाषे निरति करि, जिस्या बिनां शुंण गाइ ||टेक|| जहाँ स्वांति बू द ल सीप साइर, सहजि मोती होइ | उन मोतियन मै नीर पोयौ, पवन अम्बर धोइ || जहाँ धरनि बग्षै गगन भीजै, चन्द सूरज मेंल | दोइ मिलि तहाँ जुड़न लागे, करत हंसा केलि || एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ | पंच सुवटा आइ बैठे, उदै भई बनराइ || जहाँ बिछट्यौ तहाँ लाग्यौ, गगन बैठो जाइ | जन कबीर बटाऊवा जिनि भारग लियौ चाइ || शब्दार्थ---ल्यौलाड==लौ लगा | साइर==सागरा| नीर==पानी, काति | हंसा==शुद्ध वुद्ध जीवात्मा | विरष==वृक्ष | नदी==सुषुम्ना |कनक-कलश==सोने का कलशा, सहस्त्रार | पच सुवटा==पाच तोते ( पच प्राण--प्राण, अपान, उदान, समान तथा व्यान) | वनराइ==वनराजी, विभिन्न सद्वृत्तियाँ | जन==भत्क | वटाऊवा=पार्थक | चाइ==चाव पूर्वक | मारग लीयौ==मार्ग अपना लिया है | सन्दर्भ--कबीरदास कायायोग की साधना का वर्णन करते हैं | भावार्थ--रे साधक| तू भगवान राम मे इस प्रकार लौ लगा | उनके चरण-कमलो के समीप नृत्य कर | जीभ के बिना उनका गुण-गान कर अर्थात मन मे उनके गुणो का स्मरण कर | जहाँ न स्वाति नक्षत्र के जल कि वूद गिरती है, न सीपी है और न सागर है, वही मोक्ष रुपी मोती सहज रुप से प्राप्त होता है | अभिप्राय यह है कि आत्म समर्पण करने पर कार्य-कारण सम्बन्धो से प्रतीत सहज अनुभूति रुप मोती प्राप्त होगा | उस मोती मे परमानन्द रुप काति समायी हुई है और प्राण रुप पवन एव ज्ञान-रुप आकाश उसे निर्मल रखते हैं | अभिप्राय यह है कि प्राण-साधना एव ज्ञानानुभूति के द्वारा उसको सम्पूर्ण विकारो से रहित बना दिया गया है | इस अवस्था मे कुण्डलिनी रुपी पृथ्वी से अमृत भ्फरता है और व्रह्यरन्ध्र रुप गगन उस अमृत का पान करता है | अभिप्राय यह है कि कुण्डली-शत्कि के जाग्रत होने पर शून्य-गगन-मडल अमृत कि वर्पा से अभिसिंचित हो जाता है | इस अवस्था मे चन्द्र और सूर्य (इडा-पिंगला) नाडियाँ मिलकर तदाकार होने लगती है तथा ज्ञानी जीवात्मा आनन्दमग्न हो जाता है | इस शरीर रुपी वृक्ष मे सुपुम्ना रुपी नाडी प्रवाहित होती है और सहस्त्रार रुपी स्वर्ण कलश आध्यात्मिक आनन्द द्वारा आपूरित हो जाता है | इस अवस्था मे पचप्राण यहाँ केन्द्रित हो जाते हैं और अन्त.करण मे सदवृवृत्तियो का उदय हो जाता है, मानो वनस्थली हरी-भरी हो उठी हो |(कतिपय