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प्रश्न का उत्तर खोजने पर ही उनकी वाणी का अर्थ खुलता है, अन्यथा वह अकथ कथा ही बना रहता है। अर्थ खुल जाने पर अध्येता चमत्कृत हो उठता है। और काव्य के उपकरणों की झंकार अनहद नाद के समान उसके कानों में गूँजने लगती है। मैंने कबीर के काव्य को इसी रूप में देखने दिखाने का प्रयास किया है। यह बात दूसरी है कि मैं अपने पात्र को लघुता के अनुरूप ही उनके साहित्य-सागर का रस प्राप्त कर सका हूँ।

मैंने प्रत्येक शब्द का अर्थ दिया है, प्रत्येक छन्द का संदर्भ दिया है और तब भावार्थ लिखा है, जिससे पाठक के सम्मुख अर्थ सम्बन्धी किसी प्रकार की उलझन न रह जाये। कबीर ज्ञानी भक्त और भक्त योगी थे। इसी मान्यता के आधार पर मैंने उनके द्वारा प्रणीत प्रत्येक छन्द के अर्थ की आद्यन्त संगति स्थापित करने की चेष्टा की है। आशा है सहृदय पाठकों को अर्थ समझने में विशेष कठिनाई नहीं होगी।

भावार्थ के पश्चात अलंकारों का निर्देश कर दिया गया है और उसके नीचे कबीर के मन्तव्य एवं उनकी चिन्तन-पद्धति को स्पष्ट करते हुए 'विशेष' के अन्तर्गत आवश्यक टिप्पणियाँ दे दी गई हैं।

मुझे विश्वास है कि इस टीका को पढ़ने के बाद कबीर का काव्य दुरूह और अटपटा नहीं लगना चाहिए। वह वाणी के लिए अकथ रहा है और आगे भी रहेगा। मेरी क्या सामर्थ्य है, जो उसको कथनीय बना सकूँ? प्रकाशन केन्द्र लखनऊ के स्वामी श्री पद्मधर मानवीय के प्रति मैं विशेष आभारी हूँ जिनकी कृपा के फलस्वरूप इस पुस्तक का प्रकाशन सम्भव हो सका है।

इस समय मैं केवल कबीर के पदों और उनकी रमैंणियों पर ही लिख सका हूँ। उनकी "साखियों" को लेकर फिर कभी विज्ञ पाठकों के सम्मुख उपस्थित होऊँगा।

कबीर की अकथ कथा को अपनी सामर्थ्य के अनुसार वर्णन करके मैंने आत्म-संतोष अनुभव किया है। आशा है हमारे सुधी पाठक भी इसको पढ़ कर संतुष्ट होंगे।

आगरा
कातिक पूर्णिमा
संवत् २०२८
विनीत—
राजेश्वरप्रसाद चतुर्वेदी