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इसी प्रकार साधनात्मक जीवन की विषमताओ की ओर भी कबीर ने समन्वयात्मक दृष्टि से देखा । ब्रह्म कि सम्बन्ध मे कबीर ने इसी प्रकार जो चित्र अंकित किया वह समन्वयात्मक है।

वो है तैसा वोही जाने,ओही साहि आहिनही,आने|
नैनां बैन अंगोचरी, अबनां करनी सार|
बोलन के सुख कारने,कहिये सिरजनहार||

समन्वय की भावना से ही प्रेरित होकर कबीर ने कहा कि-

हंसा पय को कढि ले,और नीर निखार|
ऐसे गई जो सार को,सो जन उतरे पार||

कबीर की भाव भूमि दार्शनिकता का प्रखर रग और प्रभाव परिमलक्षित होता है । अदैवत व्रत,अनश्वर आत्मा अतिशय नश्वर ससार क्षणिक जीवन् ये सब एक एक कर कबीर की कविता मे व्यक्त हुए है।

कबीर का वर्ण विषय सत्य,वास्तविकता और यथार्थ से परिपोपित है। उनकी सधानात्मक सामाजिक,घार्मिक और दाशनिक अत्यन्त अत्यन्त यथार्थ है और उनका आधार प्रस्तुत अथवा प्रत्यक्ष है। दार्शनिक,और आध्यात्मिक का विश्लेषण भी कबीर ने बड़ी रोचक और प्रभावशाली मे किया है। उदाहरण के लिये यहाँ पर कतिपय साखियां उद्धृत की जाती है।

(१)

 यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरै या साथि|
डबका लागा फूटि गया,कछू न आया हाथि|

(२)

कस्तूरी कुंडली वसे मृग ढूंढे वन माहिं|
ऐसे घट घट राम है,दुनियां देखे नाहि|

(३)

पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जाति,
एक दिन छिप जाहिंगे,तारे ज्यु परिभात|

कबीर की कविता का वर्ण विषय स्पष्ट और हृदयग्राही है ज्ञान,विज्ञान जिन बातो का उल्लेख कबीर ने किया है वे बड़ी ही स्पष्ट है और स्पष्ट होने के कारण उनका विषय हमरे ह्रदय और मस्तिष्क को स्वयंम कर लेने से पुण सक्षम है से । कबीर ने अपने काव्य की रचना जनता के निम्न वर्ग के लिये कि थी।