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ग्रन्थावली } [ ७१७

   (11) प्राप्त किया हुआ घन आत्मा, भूति का है । दाता आत्मा है ! इस पद मे विभिन्न प्रतीको क सुन्दर प्रयोग है ।
   (111) भक्ति किसी सिद्धि का साधन नही है । इसी से लिखा है कि धन दिया जाहू न खाया तथा "औरनि पै जाना चू का ।"
   (iv) चदन को घिस डालने तथा वन खड को जला डालने का आशय उपासना के बाहा उपकरणो को समाप्त करना भी हो सकता है ।
   (v) पच शैल- पच प्राण,प्राण,अपान,उदान समान और ध्यान ।
   (vi)इस पद मे कबीरदास ने ईश्वर और जीव का तथा ज्ञान और भक्ति का अभेद व्यक्त किया है। यह भी बताया है कि भक्ति से ज्ञान-बोध का जन्म होता है।
   (vii)समभाव देखिए-
    जग जाँचिये कोऊ न जांचिए जो जिय जाँचिये जानकी जानहि रे।
    जेहि जाँचत जाचकता जरि जाइ जो जारति जोरि जहा नहिं रे।
                              (गोस्वामी तुलसीदास)
                    (२५३)
   अब मै पायौ राजा रांम सनेही,
           जा बिनु दुख पावै मेरी देहि॥टेक॥
   वेद पुरान कहत जाकी साखी,तीरथि व्रति न छूटै जम की पासी॥
   जाथै जनम कहत नर आगै,पाप पुनि दोऊ भ्रम लागै॥
   कहै कबीर सोई तत जागा,मन भया मगन प्रेम सर लागा॥
   शब्दाथॅ- पाक्षी= पाश, बन्धन। जन्म= दिव्य जन्म।
   संदभॅ- कबीर भगवत् प्रेम की प्राप्ति का वणॅन करते हैं।
   भावाथॅ- अब मुझे मेरे प्रेमी भगवान राम की प्राप्ति हो गई है।

उनके बिना मेरा जीवन दुखी रहता था। वेद,पुराण इस बात के साक्षी हैं कि तीथ-व्रत आदि के द्वारा काल-चक्र का बन्धन नही छूट पाता है। भाव-प्रेम के द्वारा मनुष्य को दिव्य योनि प्राप्त होती है अथात् मुक्तावस्था प्राप्त होती है। इसके उदय हो जाने पर पाप-पुण्य दोनो ही भ्रम प्रतीत होने लगते है क्योकि ये दोनो ही बन्धन कारक हैं। कबीर कहते हैं कि मेरे मन मे तत्त्व ज्ञान जाग गया है। भगवत्प्रेम रुपी वाण मेरे ह्रदय मे समा गया है और मेरा मन उसी मे तन्मय हो गया है।

   अलंकार-रुपक-प्रेम सर।
   विशेष-(i)सच्चे भगवत्प्रेम की महिमा का वणृन है।
   (ii)वाह्याचार की निरथृकता के प्रति सकेत है। समभाव के लिए देखें-
     जौ लों मन-कामना न छूटै।
   तौ कहा जोग-जग्य-व्रत कीन्हे, विनु कन भुस को कूटै।
   कहा स्नान किये तीरथ के,अग भसम जट-जूटें।