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७१५ ] [ कबीर

     कहा पुरान जु पढे अठारह, उरध घूम के घुटै ।
     जग सोभा की सफल बडा़ई, इन ते कछू न खूटै ।
     करनी और कहनी कछु औरै, मन दसहूँ दिसि टूटै ।
     काम क्रोध मद लोभ सत्र हैं, जो इतननि सों छूटै ।
     सूरदास तब ही तम नासै, ग्यान-अगिनि-भ्कर फूटै ।
                                -महात्मा सूरदास
                    (२५४)
     बिरहिनी फिरै है नाथ अधीरा,
     उपजि बिनां कछू समझि न परई, बांझ न जांनै पीरा॥टेक॥
     या बड़ बिथा सोई भल जांनै रांम बिरह सर मारी ।
     कैसो जांनै जिनि यहु लाई,कै जिनि चोट सहाऱी॥
     संग की बिछुरी मिलन न पावै सोच करै अरु काहै ।
     जतन करै जुगति बिचारै,रटै रांम कूं चाहै ॥
     दीन भई बूझै सखियन कौ, कोइ मोहि राम मिलवै ।
     दास कबीर मीन ज्यूं तलपै,मिलै भलै सचुपावै ॥
 शब्दार्थ-उपजि=विहर जन्य अधीरता की उत्पत्ति । बड़=बड़ी ।सहारी

= सहन की । काहै=कराहती है।

सन्दर्भ - कबीरदस की आत्मा रूपी पत्नी अपने पति  राम के वियोग में व्याकुल है ।
 भावार्थ- हे नाथ!विरहिणी आपके वियोग में अधीर हुई मारी-मारी

घूम रही है । जिसके हृदय में विरह की यह पीड़ा उत्पन्न नहीं हुई है वह मेरी इस व्यथा को नहीं समझ सकता है । ठीक ही है,बाँझ नारी प्रसव की पीडा को नहीं जान सकती है । इस बड़ी व्यथा को वही अच्छी तरह समझ सकती है, जिसको राम के विरह का वाण लगा है । प्रेम की पीड़ा की अनुभूति या तो उसे होनी है जिसने यह प्रेम-पीड़ा को उत्पन्न किया है अथवा वह जिसने इसकी चोट को सहन किया है । हे भगवान,आपकी साथिन यह जीवात्मा आपसे बिछुड गई है और आपसे मिल नहीं पा रही है। इसी कारण वह चिन्तित है और कराह रही है । वह आपसे मिलने के लिए उपाय सोचती है और तरह-तरह की तरकीबो पर विचार करती है । वह निरन्तर प्रियतम राम को ही रटती रहती है और उन्ही में पूर्णत अनुरक्त है। यह अत्यन्त दीन बनी हुई अन्य भवत आत्माओ रूपी सखियो से मिलन का उपाय पूछती रहनी है और अनुनय करती है कि मुझे कोई भी राम से मिला दे । भक्त कबीरदास कहते हैं कि यह जीवात्मा राम के वियोग में जल से वियुक्त मछली की तरह तडपती है । उनसे मिलने पर ही इसको सच्चे सुख की प्राप्ति होगी ।

   अलंकार -(i) निदर्शना - वाँझ न जाने पीरा ।
          (ii) रूपक - विरहसर