पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४०६

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ग्रन्थावली ] [७२१ है, उसको कोई नही जानता है। सद्गुरु का सदुपदेश रुपी वाण मेरे ह्रदय मे समा गया है। (उसी से प्रेम की यह पीडा उत्पन्न हुई है)। हे भगवान, तुम्हारे समान कोई प्रेम का उपचार करने वाला वैध नही है ओर मेरे समान कोई अन्य प्रेम से व्यथित रोगी नही है । मेरे मनमे उत्कट प्रेम-व्यथा उत्पन्न हो गयी है । अब मैं आपके वियोग ने किस प्रकार जीवित रह सकती हूँ ? रात - दिन मुझे आप की राह देखते हुए व्यतीत होते हैं। हे राजा राम, आप अभी भी आकर मुझसे नही मिले हैं। कबीर कहते हैं कि इस विरह के कारण हमको बहुत भारी दुख है। हे मुरारी ! आपके दर्शनों के बिना मैं किस प्रकार जीवित रह सकूँगा ?

  अंलकार -(I)रूपक -बिरह  कै  भालै ।
         (II)वकोक्ति - को जाने  पीरा,बिन मुरारी।
          (III)अनन्व्य- तुमसे ....रोगी ।            
         (IV) गढोक्ति- उपजी .... बियोगी। 
         (V) परिकराकुर - मुरारी ।         
  विशेष -(1) रहस्य भावना की व्यजना है।
  (ii.)भक्ति के विप्रलम्भ पक्ष का मार्मिक वर्णन है।
  (iii.)"विरह कै भालै "- सह्श्   कथन पर फारसी की ऊहात्मक शैली  का स्पष्ट  प्रभाव है।    
                      (२८८)
    तेरा हरि नांमै जुलाहा,   
          मेरै रांम  रमण का लाहा ॥ टेक॥  
    दस सै सूत्र की पुरिया पूरी , चद सूर दोइ साखी । 
    अनंत नांव गिनिं लई मजूरी , हिरदा कवल मै राखी ॥ 
    सुरति सुमृति दोइ खूटी कीन्ही , आरंभ कीया बमेकी । 
    ग्यान तत की नली भराई , बुनित आतमां पेषी ॥    
   अविनासी धंन लई मजूरी , पूरी थापनि पाई ।     
    रस बन सोधि सोधि सब आये निकटै दिया बताई ॥  
    मन सूधा कौ कूच कियौ है , ग्यान बिथरनीं पाई । 
    जीव की गांठि गुढी सब भागी , जहां की तहां ल्यौ लाई ॥ 
    बेठि बेगारि बुराई थाकी अनमै पद परकासा ।
    दास कबीर बुनत सच पाया , दुख ससार सब नासा ॥   

शब्दार्थ- राम- रमण = आत्मा मे रमना । चद सूर = इडा पिंगडा । सन्दर्भ- कबीरदास आत्म-दर्शन का वर्णन करते हैं । हे भगवान ! मैं तेरे नामरूपी वस्त्र के बुनने वाला जुलाहा हूँ। इस व्य्वसाय से मुझको यह लाभ है कि मुझे राम मे रमण करने का (आत्म-साक्षात्कार) का अवसर प्राप्त होता है । मैंने हज़ार सूत्रों की पुटरी भरली है अर्थात् अन्त करण की