पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४१०

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ग्रन्थवली

हैं, परन्तु निराकार निर्गुण ब्रह्य‌ का नाम कभी नहीं लेते है । कबीर कहते हैं कि (मोक्ष की प्राप्ति तो भगवान के चरणों की कृपा से सम्भव है) भगवान के चरणों का यह यश मैं काशी को कभी नहीं दुँगा, चाहे मुझे नरक में ही क्यों न जाना पडे । अलंकार- (1) पुनरुक्ति प्रकाश- देवल देवल । विशेष-- (1) मुक्ति का श्रेय भगवान को ही है, काशी को नहीं। अनन्य भक्त की भाँति कबीरदास अपने इष्टदेव की महिमा को अक्षुण्ण मानते हैं । वह तो अन्यत्र भी कह चुके है कि 'जो कासी तन तजै कवीरा, रामहिं कहा निहोरा ? '" (11) काशी मे मृत्यु होने पर मुक्ति हो जाती है । इस रूढिबध्द धारणा का खप न है । (111) इस -पद में मगहर के पूर्व काशी-त्याग का उनका सकल्प व्यक्त हुआ है, क्योंकि काशी-वास से मुक्ति-लाम से इनका विश्वास बिल्कुल नहीं था । ( २६१ ) तब काहे भूलौ बनजारे, अब आयौ चाहै संगि हमारे।। टेक।। जब हंम बनजी लौंग सुपारी, तब तुम्ह काहे बनजी खारी । जब हम बनजी परमल कसतूरी, तब तुम्ह काहे बनजी कूरी।। अमृत छाडि हलाहल खाया, लाभ लाभ करि मूल गँवाया 1। कहै कबीर हम बनज्या सोई, जाथे आवागमन न होई।। शब्दार्थ- वनजारे= व्यापार करने वाला । संदर्भ-कबीरदास अज्ञानी साधक को एक नादान व्यापारी के रूप से‌ सम्बोधित करते हैं । भावार्थ - रे साधक रूपी व्यापारी, उस समय तो तू इधर-उधर की साघ नावों में भटकता रहा और अब (जीवन को संध्या समय) तू मेरा अनुयायी बनना चाहता है? जव हम यम-नियम (भक्ति) रूप लौग सुपारी का व्यापार करते थे, उस समय तुम विषय वासना रूप नमक के व्यापार मे उलझे रहे । जब हम ज्ञान और भक्ति रूप कस्तूरी एव अन्य सुगन्धित वस्तुओं का व्यायापार करते थे, तब तुम व्यर्थ की साधनाओं रूप कारी जैसी घास के व्यापार मे फँसे रहे । तुमने भक्ति-रूपी अमृत छोडकर विषय-वासना रूप विष का पान किया है । तुमने अत्यधिक मुनाफे के चक्कर से गाँठ की कुंजी भी र्गवादी है अर्थात् तुमने सासारिक लाभ के लोभ मे अपने शुध्द स्वरूप रूप मूल घन को भी खी दिया है । कबीरदास कहते हैं कि हमने तो भगवत्प्रेम रूपी उसी व्यापार को किया जिससे ससार में आवागमन नहीं होता हैं अर्थात् जिससे फिर ससार में जन्म नहीं लेना पडता है । अलकार-- (1) रूपकातिशयोक्ति-लौग सुपारी, खारी, अमल कस्तूरी,‌ कूरी, अमृत, हलाहल मूल ।