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ग्रन्थावली

        असगति की व्यजना-इनके       हमारा ।
  उदाहरण-ज्यू     माना ।

विशेष-(१) यन्त्र शरीर है चोर पच वीकार है। नगर शरीर या मन है। (११)कवीर के ह्रदय मे तो यह विश्वास सुहढ जम गया हे कि जो कुछ भगवान और गुरू हैं, वही हक है। जीवात्मा और परमात्मा अभित्र है। जीवात्मा उस परम तत्व से कभी प्रथक् नही हो सक्ता। कबीर कहते है की हमारा जीवात्मा परम तत्व से पूर्णत तदाकार हो गया है। अव्दैतवाद का सुन्दर प्रतिपादन है।

  (१११)जीव के निर्लिप्त भाव,अकर्तापन,समर्पण एव परम तत्व के विलय 

का सुन्दर एव भावपूर्ण चित्रण है।

                      (२६३)    

मन रे आइर कहां गयौ।

          ताथै मोहि बैराग भयौ ॥टेक॥

पंच तत ले काया कीन्हीं,तत कहा ले कीन्हां । करमौ के बसि जीव कहत है, जीव फरम किनि दीन्हां॥ आकास गगन पाताल गगन,दसौं दिसा गगन रहाई ले॥ आंनद मुल सदा परसोतम,घट बिनसै गगन न जाई ले॥ हरि मैं तन हैं तन मैं हरि है, है सुंनि नांहीं सोई॥ कहै कबीर हरि नांम न छांडूं, सहजै होइ सो होई॥ शब्दार्थ-गगन=शून्य अयवा चैतन्य। संदर्म-कत्रीर परम तत्व की सर्वव्यापकता पर विचार करते हैं। भावार्थ-रे मन तुम आकर कहॉ चले गये? अर्थात् ईश्वरोन्मुख मन स्थिति कहॉँँ चली गई? यह सोचकर कि मन अस्थिर एव चचल वस्तु है, मुभ्फे इस मन के प्रति व्ँँराग्य हो गया है। पच तत्वों(पृथ्वी,जल,वायु,तेज तथा आकाश) के व्दारा इस शरीर का निर्माण हुआ है। परन्तु विचारणीय यह है कि उन पच तत्वो को कहाँ से निर्मित किया गया है? उनका मूलभूत कारण क्या है? कहा जाता है कि जीव कमोँ के वशीभूत रहता है। परन्तु जीव को कमोँ के वशीभूत किसने किया? आकाश के मूल मे गगन है,पाताल के मूल मे गगन है। तथा दशो दिशातो मे भी वही गगन विराजमान है। इस प्रकार पुरुषोनतम भगवान ही शाश्वनत अनन्द के मूल स्थान है। शरीर नष्ट होता है परन्तू उसका गगन तत्व नष्ट नही होता है। शरीर भगवान मे है,एव शरीर मे भगवान व्याप्त है।शरीर है भी और नही भी है (शरीर वास्तव मे नही है।)कवीर कहते है कि मै भगवान का नाम स्मरण नही छोडूगा। उससे जो जैसा होगा वैसा अपने आप हो जाएगा। अर्थात् जो तत्व जैसा है वह तत्व सहज रूप मे वैसा ही है।उसका निरूपण करने मे वाणी अमभथै है। वह सहज भाव से हो प्राप्थ है।

     अल्ंकार-(१) गृढोक्ति-पच तत्व     दीन्हा ।