नहीं देखा। इस धन-दौलत ने किसी का भी साथ नहीं दिया । राजा भी इसका साक्षी(गवाही)है। जब जीवात्मा प्राणायाम के द्वारा शून्य तत्व मे लौ लगा कर क्रीडा करती है,तब उसको सर्वत्र व्याप्त आनंद रूप सुवर्ण की प्रप्ति होती है। मनुष्य को जन्म बार बार नहीं मिलता है। यह जीवन क्षण भंगुर है। ये प्राण किसी समय शरीर को छोड़कर ऐसे चले जाएंगे जैसे वृक्ष को छोड़कर पक्षी उड़ जाते है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने-अपने रास्ते अकेला ही जाता है। परलोक-गमन के मार्ग मे कोई किसी से नही मिलता है। मूर्ख जीव मनुष्य जन्म (विपय भोग मे) व्यर्थ ही गवा देता है और कौड़ी के मूल मे ही उसको खो देता है। जिस शरीर और धन के कारण संसार के लोग अपने आप को भूले हुए हैं और जगत जिसकी रक्षा मे लीन है,उसी माया का परित्याग करो । यह जीवन हाथ की अँजली मे भरे हुए पानी के समान क्षण-स्थायी है । इसका क्या भरोसा ? कबीर कहते हैं की यह संसार व्यर्थ का प्रपंच है । रे अज्ञानी जीव ,तू क्यो नही चेतता है-होश मे आता है ?
अलंकार- (i) छेकानुप्रास--धन धंधा, माया मिथ्यावाद ।
(ii)कछु कीजै, राय रसायन, जगत जग । जल जीवन । मूरख मनीषा।
(iii)उपमा-हलूर ज्यू । जम से । देवल जूँ । पखी जेम । कौडी ज्यूँ। जाल अजूरी जैसा ।
(iv)वृत्यानुप्रास-चित चेति चतुर, भरमि भूलसि भोली । पडिया पछतावै पाछै ।
(v)श्लेशपुष्ट रूपक--घट ।
(vi)वऋोत्र्त्कि--क्यूँ धनेरी । तिहिं जगावै ।
(vii)विरोधाभास--जगत नींद उपावै।
(viii)दृष्टान्त--जलजत निदानी।
(ix)रूपकातिशयोक्ति की व्यजना--धज। हाटिक।
(x)रूपक--राम रसाइन ।
(xi)गुढोत्कि--ताका भरोस ।
(xii)पदमैत्री--राम राम, धधा अधा ।
विशेष-(i) जीवन और जगत की असारता का प्रतिपादन है।
(ii)'निर्वेद' की मार्मिक व्यजना है ।
(iii)जीवन की क्षणिकता को व्यक्त करने के लिए जल अजुरी जीवन जैसा" बडी ही सार्थक उपमा का प्रयोग किया गया है।
(iv)हस, पवन,हारिक--नाथ सांप्रदाय के प्रतीको का प्रयोग है।
(v)मानेख जनम बारबारा--तुलना करें–
बड़े भाग मानुष तन पावा । सुरदुरलभ सद ग्रन्थन गावा।
(गोस्वामी तुलसीदास)