पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७३४ ]
[ कबीर
 

विशेष-(i) नाथ पथ के प्रतीको का प्रयोग है|

(ii) कायायोग की साधना की अपेक्षा भक्ति की श्रेष्ठता एवं सुगमता का प्रतिपादन है|

(iii)कुण्डलिनी-देखें टिप्पणी पद सं० २१६|

(iṿ)कायायोग की साधाना के लिये देखें टिप्पणी पद संख्या ४|

(२६६)

भरथरी भूप भया बैरागी|

बिरह वियोग बनि बनि ढूंढैं,वाकी सुरति साहिब सौं लागी||टेक||

हसती घोड़ा गांव गढ़ गूडर,कनड़ा पा इक आगी|

'जोगी हवा जांणि जग जाता,सहर उजीणीं त्यगी||

छत्र सिंघासण चवर दुलंता राम रग बहु आगि|

सेज रमैणी रभा होरी,तासौं प्रीति न लागी||

सूर बीर गाढा पग रोप्या,इह बिधि माया त्यगी|

सब सुख छाडी भज्या इक साहिब,गुरु गोरख ल्यौ लागी||

मनसा वाचा हरि हरि भाखै,गंधृप सुत बड़ भागी|

कहै कबीर कुदर भजि करता,अमर भरगे अणरागी||

शब्दार्थ-भूप=राजा| सुरति=लय,लगन|साहिब=स्वमी,ब्रह्मा| हसती=हाथी|गूडर=गढी,छोटा किला|उजीडी=उज्जन|गाढा=हढ, रोप्या,लगाया|कुदर=कुदरत,ईश्वरीय शक्ति|

संदर्भ-कबीरदास राम-भजन की महिमा का वर्णन करते है| भावार्थ-राजा भतृंहरि वैरागि हो गया|उसकी लगन ब्रह्मा से लग गई थी और वह भगवान के वियोग में विरह-दुःख से पीड़ित होकर अपने प्रभु को वन-वन ढूंढता फिरा|हाथी,घोड़ा,ग्राम,किला,गढि,ऐश्वर्य आदि उपकरण उसके लिये अग्नि स्वरूप थे|समस्त संसार जानता है कि वह जोगी हो गये थे और उन्होने (अपनी राज्धानी)उज्जैन नगर का त्याग कर दिया था|उनके पास छात्र,सिंहासन,चारों ओर डोलते हुए चंवर आगे होते हुए अनेक प्रकार के राग रंग तथा शैय्या पर रम्भा जैसी सुन्दरी रमणियाँ थी|उन सबके प्रति वह राजा आसक्त नही हुआ|उन सबके विरोध मे उस वीर शूरमा ने अपने पॉव दृढ़ता पूर्वक जमा दिये अर्थात उनका आकर्पण उनको टस से मस नहीं कर सका और इस प्रकार उसने माया (ममस्त आसक्तियों) का परित्याग कर दिया|उसने समस्त सांसारिक सुखों को त्याग कर एक भगवान का भजन किया और गुरु गोरखनाथ में ही अपनी लौ लगा दी|मन और वाणी से उसने भगवान का भजन किया|वह गंधर्प सुत बड़ा ही भग्यशाली था|कबीर केहते हैं कि वह ईश्वर के प्रति अनुरक्त राजा ईश्वरीय शक्ति का स्मरण करते हुए अमर पद को प्राप्त हुआ|