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कबीर की काव्य कला

सन्त कबीर सन्तमत प्रवर्तक एवं सस्थापक थे। सन्तमत के अन्तर्गत ह्रदय उदात्त भावना भत्ति एव साधना की चरम अभिव्यत्ति हुई हैं। उसमे ह्रदय की स्वाभाविक प्रेरणा की झलक विध्यमान है। सन्तमत बहुजन हिताय, स्वच्छ्न्द एवं नैमर्गिक है। सन्तमत के सम्बन्धित साहित्य मे कृतिमता का अभाव है। काव्य की सरलता एव सहजता ही उसकी विशेषता है। इस साहित्य मे सन्तो के महान व्यक्तित्व, निर्मल हृदय था उनकी जनहित की भावना प्रतिविम्बित होती है।मध्ययुगीन साहित्य की विशेषताओ का उल्लेख करते हुए डाँ० रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि 'मध्य युगेर साधक कबीरा हिन्दी भाषाएं जे भाव रसेर ऐश्वर्य विस्तार करियाध्ने ताहर मध्ये असमान्य विशेषत्व अच्छे सेई विशेषत्व एइ जो ताहादेर रचनाय उच्च अगरे साधक एव उच्चे अगेर कवि एकग्र मिलित होइयाद्धेन एमन मिलन सर्वत्रइ दुर्लभ (सुन्दर ग्रन्थावली प्राक्कथन-सम्पादक पुरोहित हरिनारायण शर्मा) अथति मध्य युग के साधक एव कवियो ने जो भाव एवं रस का विस्तार किया है उसमे असामान्य विशेषता अकित है) वह विशेषता यह है कि उस रचना मे उच्च श्रेणी के साधक तथा उच्च श्रेणी के कवि का सम्मिलन है इस प्रकार का सम्मिलन स्वांग दुर्लभ है। सन्तमत का काव्य-साहित्य बहुत स्वतंत्रता तथा प्रभावशाली है। सन्तम्त के समस्त कवियो मे कवि कबीर सबसे अधिक प्रतिभाशाली एव मौलिक थे। मौलिकता तथा प्रतिभा मे तो कबीर हिन्दी साहित्य के सूर्य एव चन्द्र' सूरदास तथा तुलसीदास से कही अधिक बढे हुए धनी हैं।कबीर जिस कुल मे उत्पन्न हुए या कबीर का जिस कुल मे पालन-पोषण हुआ वहा न कोई सांस्कृतिक परम्परा विद्यमान थी न अध्ययन का वातावरण था न वेदशास्त्र की चर्चा। कबीर ने स्वयं कहा है कि "मसि कागद छूया नही कलम गध्यो नहि हाथ" ऐसे वातावरण मे उद्भूत होकर, परिपालित होकर कबीर धर्म सुधार, समाज परिष्कार तथा काव्या रचना के क्षेत्र मे अवतरित होकर, अपनो मृत्यु के अनन्तर ५०० वर्षो तक चर्चा मनन, अध्ययन, आलोचना और अनुसन्धान के विषय बने रहे यह कबीर का अत्तितीय प्रतिभा तथा मौलिकता का परिचायक है। कबीर ने काव्य रचना का वर्ण नही लिया था, न कविता लिखने की प्रतिज्ञा करके उन्होने कही पर कुछ लिखा है। फिर भी पाँच सौ वर्षो से कवि या महाकवि के रूप मे अध्ययन के विषय बने हैं। कबीर को,रोनि