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ग्रन्थावली ]
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अलंकार-(ị) अनुप्रास- भरथरी, भूप भया, बिरह वियोग बनि बनि वाकी,गाँव, गढ, गूडर ।

(ịị) पुनरुक्ति प्रकाश- बनि बनि , हरि हरि ।

(ịịị) रूपक-रमैगी रभा ।

विशेष-(ị) राम भक्ति के प्रति आस्था स्पष्ट है ।


(ịị) कबीर पौराणिक आख्यानों के महत्व को स्वीकार करते हैं ।


(ịịị)भरथरी- यह उज्जैन के राजा थे जिन्हें अपनी रानी पिंगला का चरित्र देखकर वैराग्य उत्पन्न हो गया था । अतएव ‌वह अपना सब राज-पाठ अपने भाई विक्रमादित्य को देकर योगी हो गए थे । वह बड़े ही विद्वान थे। इनके द्वारा लिखे हुए तीन शतक-ऋंगार शतक, निति शतक एवं वैराग्य शतक-बहुत प्रसिद्ध हैं ।

(ịV) गोरखनाथ--. नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं नौ नाथों में सर्वप्रथम माने जाते हैं । कबीर ने अनेक स्थलो पर इनको सदगुरु के रूप में इनका उल्लेख किया है । कहते हैं किं इन्होंने अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का उद्धार किया था । कहा भी जाता है-"जाग मच्छेन्द्र गोरख आया है"

गोरखनाथ के समय के सम्बन्ध में विद्वानो में मतभेद है । उनका समय विक्रम की १० वी और १३ वी शताब्दी के बीच माना जाता है |

राग केदारी

( ३०० )

सार सुख पाइये रे,

रगि रमहु आत्मांरांम || टेक ||

बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार |

घर बन तत समि जिनि किया, ते बिरला संसार |

का जटा भसम लेपन कियें, कहा गुपत मै बास |

मन जीत्यां जग जीतिये, जौ विषग्रा रहै उदास ||

सहज भाइ जे उपजै, ताक किसा मांन अभिमान |

आपा पर समि चीनियै, तब मिले आतमांरांम ||

कहै कबीर कृपा भई, गुर ग्यान कह्या समझाइ |

हिरदै श्री हरि भेटियै, जे मन अनतै नहीं जाइ ||

शब्दार्थ-सार= सच्चा। तत=इसलिए। समि=समाना विषया=विषयो के प्रति ।

सदर्भ- कबीरदास अ त. साधना का प्रतिपादन करते हैं ।

भावार्थ-रे जीव, अपने आत्माराम के प्रेम में रंग कर उसी मे रम जाओं और इस प्रकार वास्तविक सुख की प्राप्ति करो । अगर मन के विकार (काम,क्रोध,लोभ मोह एव मत्सर) नहीं छूटते है, तो सन्यासी बन कर वन में जाकर रहने से