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[कबीर
 

क्या लाभ हो सकता है? ऐसे व्यक्ति संसार मे बहुत थोड़े ही है, जिन्होने सच्ची साधना की दृष्टि से घर को ही वन के समान कर लिया है। जटा रखने, भस्म रमाने अथवा गुफा मे वास करने से लाभ नही होता है। यदि विषयो के प्रति उदास रह कर मन को जीत लिया जाए, तो संसार को जीत लिया जाता है। जिसके हृदय मे भगवान के प्रति स्वाभाविक प्रेमानुभूति उत्पन्न हो जाती है अथवा सहज की अनुभूति जाग जाती है, वे मानापमान के परे हो जाते हैं- उनमे न किसी प्रकार का अहंकार रह जाता है और न उनमे किसी प्रकार की मान-मर्यादा की इच्छा शेष रह जाती है। जब व्यक्ति अपने और पराए को समान समझने लगता है, तभी उसे आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार होता है- अर्थात् समबुद्धि के द्वारा ही आत्मदर्शन सम्भव है। कबीर कहते है कि हमारे ऊपर तो गुरु की कृपा हो गई है। उन्होने हमे आत्म-ज्ञान समझा दिया है। अगर मन इधर-उधर न भटके तो हृदय मे ही भगवान के दर्शन हो जाते हैं।

अलंकार-(I) वकोक्ति- का•••बास।

(II)अनुप्रास-जीत्या जग जीतिये।

(III)सभग पद यमक-भाव अभिमान।

विशेष- औपनिषदिक ज्ञान का प्रभाव स्पष्ट है। उपनिषद् और गीता मे अनेक स्थानो पर समबुद्धि का प्रतिपादन किया गया है तथा मानापमान रहित होना सफल साधक का लक्षण बताया गया है। यथा- देखे श्रीमद्भभगवद्गीता के ये वचन-

दुखेद्वनुगविग्नमना सुखेषु विगतस्पृह ।

वीतराग भयकोघ स्थितघीमु निरुच्यते । (७/५६)

तथा-- निर्मको निरह्ंकार स शान्तिमघिगच्छति । क(२/७१)

तथा-- "आत्मवत सरवभूतेषु य पश्यति ।"

-श्रीमद्भगवदगीता

(३०१)

है हरि भजन कौ प्रवांन ।

नींच पांवै ऊच पदवी,बाजते नींसान ॥टेक॥

भजन कौ प्रताप ऐसो, तिरे जल पाषान ।

अघम भील अजाति गनिका, चढ़े जात बिदांन ।

नव लख तारा चलै मंडल, चलै ससिहर भांन ।

दास धूकौ अटल पदवी, रांम को दीवांन ॥

निगम जाकी साखि बोलै, कहै संत सुजांन ।

जन कबीर तेरी सरनि आयौ राखी लेहु भगवांन ॥

शब्दार्थ- प्रवान=प्रमाण पत्र। नीसान=निशान, डंका । पाषान=पत्थर ।दीवान=शाहीदरबार, प्रधानमंत्री ।

सन्दर्भ-कबीरदास भगवद्भजन के प्रभाव का वर्णन करते है ।