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[कबीर
 

चढ़ाई के समय सागर पार करने के लिए सेतु बाँधा था । यह राम की कृपा द्वारा ही सम्भव हो सका था ।

(।।।) यह पद ज्यो का त्यो सूरसागर मे भी मिलता है । अन्तर केवल 'कबीर' और 'सूर' का है । कबीर ने किखा है कि 'जन कबीर तेरी सरनि आयो', और सूर लिखते हैं कि, "सूर हरि को सरन आयो ।" देखिए -


हे हरि भजन को परवान ।

नीच पावै ऊँच पदवी बाजते निशान ।
भजन को परताप ऐसे जन तरै पाषान ।
अजामिल और भील गणिका चढ़े जाता विमान ।
चलत तारे सकल मण्ड्ल चलत शशि अरु भान।
भक्त ध्रुव को अटल पदवी राम के दीवान ।
निगम जाको सुयश गावत सुनत संत सुजान ।
सुर हरि को शरण आयो राखि ले भगवान ।

(सूरसगतिसार - पद ८०)

(३०२)

चलौ सखी जाइये तहां,

जहां गय पांइयै परमांनद । टेक ॥
यहु मन आमन धूमनां, मेरो तन छीजत नित जाइ ।
च्यंतामणि चित चोरियौ, तार्थ कछु न सुहाइ ॥
सु नि सखि सुपनै की गति ऐसी, हरि आए हम पास ।
सोवत ही जगाइया, जागत भए उदास ॥
चलु सखी विलम न कीजिये, जब लग सास सरीर ।
मिलि रहिये जगनाथ सू, यूं कहै दास कबीर ।

शब्दार्थ- आमन = आने = जाने । घूमना = घूमने वाला । छीजै = क्षीण होता है ।

सन्दर्भ कबीरदास मन को भगवान प्रेम के लिए प्रेरित करते हैं ।

भावार्थ - हे जीवात्मा ( सखि ) । इस संसार को छोड़कर वहाँ चलो जहाँ परमानन्द की प्राप्ति होती है । यह मेरा मन तो अत्यन्त चंचल है - यह निरंतर आने जाने वाला और घूमने वाला है ( कभी अनुकूल रहता है और कभी प्रतिकूल हो जाता है)। और यह शरीर निरन्तर क्षीण होता जाता है । चिंतामणि स्वरूप भगवान ने मेरा मन चुरा लिया है । इस कारण मुझको संसार की कोई वस्तु अच्छी नही लगती है । रे सखि सुन, स्वप्न मे कुछ ऐसा हुआ कि भगवान मेरे पास आए और उन्होने मुझको सोने से जगा लिया । परन्तु जागते ही मेरा मन उदास हो गया । रे सखि, जब तक इस संसार मे प्राण हैं, तब तक जल्दी से यह काम कर