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ग्रन्थावली ]
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लो। देर मत करो। भगवान से मिलने के लिए चल पडो । कबीर कहते है कि प्राण रहते हुए जल्दी ही भगवान के साथ तदाकार होने का प्रयत्न करना चाहिए।

अलंकार-रूपकातिशयोक्ति 'सखि, च्यतामणि।

विशेष-(1) सोवत °°° उदास-इस स्वप्नवत् जगत मे अचानक भग- वत्प्रेम जाग गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि पति रूप भगवान मेरे समीप ही आ गए थे । भगवान के इस प्रकार आगमन से अज्ञान की निद्रा समाप्त हो गई। यह वोध हुआ कि मैं भगवान से बिछुड कर व्यर्थ ही इतने दिनों से भटक रही थी। इस आत्मग्लानि के कारण मन का उदास हो जाना स्वाभाविक ही है । अथवा यह कहिए कि आत्मबोध के फलस्वरूप मेरा मन ससार के प्रति उदासीन हो गया।

(।।) स्वप्न और जागरण के रूपक कवि ने लौकिक स्तर के दाम्पत्य प्रेम के विम्बो द्वारा अलौकिक एव रहस्यवादी प्रेम तथा ज्ञान एव भक्ति की समन्वित हृदय स्पर्शी एव सशक्त व्यजना की है। (।।।) समभाव देखे- चकई री ! चलि चरन-सरोवर जहां नहिं प्रम वियोग । निसि दिन राम नाम को भक्ती भय रुज नहिं दुख सोग । तथा - सुवा चलिवा वन को रस पीजै । जा वन राम नाम अमृत रस श्रवण पाय झरि लीजै। (सूरदास) (iv) सोवत · उदास- इसी कोटि के लौकिक दाम्पत्य प्रेम की अभि- व्यक्ति देखिए-

हौं सपनें गई देखन कौं, फहू नाचत नद-जसोमति को नट ।
वा मुसकाय के भाव बताय के, मेरोई खै चि खरो पारो पट
तौ लगि गाइ बगाइ उठी, कहि देव, वधूनि, मथ्यौ दधि को मट ।
जागि परी तौन कान्ह कहूँ, न कद ब, न कुज, न कालिन्दी को तट। (देव)

( ३०३ )

मेरे तन मन लागी चोट सठौरी ।।
बिसरे ग्यान बधि सब नाठी, भई बिकल मति बौरी ॥ टेक ॥
देह बदेह गलित गुन तीनं, अचत अचल भइ ठौरी ।
इत उत जित कित द्वादस चितवत, यहु भई गुपत गौरी ।।
सोई पै जानै पीर हमारी, जिहि सरीर यह व्यौरी ।
जन कबीर ठग ठग्यो है बापुरौ, सुनि समानी त्यौरी ॥

शब्दार्थ-सठौरी=सही स्थान, मर्म । ज्ञान= सामान्य ज्ञान । नाठी नष्ट हो गई। ठगौरी- जादू । ब्यौरी=विवृत, व्यक्त । सुनि= शून्य । त्यौरी= त्रिकुटी।

सन्दर्भ-कबीरदास ज्ञान दशा का वर्णन करते हैं । भावार्थ- मेरे शरीर और मन पर (गुरु उपदेश एव प्रभु की) चोट ठीक