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[ कबीर
 

स्थान (मर्म) पर लगी है। इससे मेरी समस्त लौकिक ज्ञान, एव विवेक नष्ट हो गए हैं और मेरे बुद्धि प्रभु के विरह मे व्याकुल होकर पागल हो गई है । मेरी देह विदेह हो गई है अर्थात् इस शरीर एव उसके सुखो के प्रति मेरी आसक्ति समाप्त हो गई है और तीनो गुण समाप्त हो गए हैं । जो अवयव चल रहे थे, वे जहाँ के तहाँ स्थिर हो गए हैं अर्थात् मेरे शरीराँगो ने कार्य करना बन्द कर दिया है। शरीर के बारह अंगों की क्रियाएँ अस्त-व्यस्त हो गई हैं । इस गुप्त मार्मिक चोट ने जादू का काम किया है । हमारी व्यथा को वही समझ सकता है जिसके शरीर मे यह पीड़ा व्यक्त हुई हो अर्थात् जिसको यह व्यथा भोगनी पड़ी हो। कबीरदास कहते हैं कि मैं भक्त तो प्रभु प्रेम के जादू रूपी ठग द्वारा ठग लिया गया हूँ और मेरी त्रिकुटी शून्य मे लग गई है, अर्थात् मेरी समस्त चित्तवृत्तिया अन्तर्मुखी हो गई हैं ।

अलंकार-(1) सभग पद यमक-देह वदेह ।

(।) विरोधाभास-चलत अचल भई ।
(।।) पदमैत्री इत उत जित कित ।
(iv) रूपक- ठग।

विशेष-(1) बारह अग पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, मन एव बुद्धि।

(11) तीन गुण-सत्त्व गुण, रजोगुण तथा तमोगुण ।

(1) त्रिकुटी-देखे टिप्पणी पद स० ३, ४, ७ ।

(।।।) शुन्य-देखें टिप्पणी पद स० १६४ ।

(।v) सोई वै-व्यौरी "जागे लगे सोई जाने विथा" अथवा दरद न जाने जाके फटी विवाई ना।

(v) सोई व्योरी ईश्वर प्रेम एव ज्ञान की दशा मे अवधूत व्यक्ति की सासारिक विपयो के प्रति आसक्ति नही रह जाती है। इससे वह ससार के व्यवहार मे पटु न रहकर पागल एव मूर्ख प्रतीत होते हैं ।

( ३०४ )

मेरी अंखियां जान सुजांन भई।
देवर भरम सुसर संग तजि करि हरि पीव तहां गई ॥ टेक ॥
बालपने के करम हमारे, काटे जानि दई ।
वांह पकरि करि कृपा कीन्ही, आप समीप लई ॥
पानी की बूंद थे जिनि प्यड साज्या,ता सगि अधिक करई ।
दास कबीर पल प्रेम न घटई, दिन दिन प्रीति नई ॥

शब्दार्थ-जानि=जानबूझ कर। दई=भगवान।प्यड-शरीर माजा =बनाया।

सन्दर्भ-कबीर ज्ञान दशा का वर्णन करते हैं ।।

भावार्थ-भगवान के प्रेम में अनुरक्त जीवात्मा कहती है कि प्रभु-दर्शन