पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४२६

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ग्रन्थावाली| के प्रभाव से मेरी हष्टि अब विवेक पूर्ण एव सुविज्ञ हो गई है| अथात् अब मैं अपने-पराए को पहिचानने लगी हूँ | मैं भ्रम रूपी देवर और अज्ञान रूपी श्व्सुर का साथ छोडकर अपने पति भगवान के पास पहुच गई हू।वाल्याव्स्था मे अथवा अज्ञानाव्स्था मे किए हुए मेरे कमो के दोषो को भगवान ने जानवूक कर समाप्त कर दिया हे। । उन्होने मेरे ऊपर कृपा की ओर मेरी बाँह पकड कर अपने पास स्थान ने दिया है। जिस भगवान ने पानि की एक बूँद(वीर्य) द्वारा मेरे इस शरीर का निर्माण किया,उन्हि भगवान के साथ मै अब रमण करने लगी हू। दास कबीर कहते है कि



भगवान के प्रति मेरा प्रेम एक क्षण के लिए भी कम नही होता है। उसके प्रति मेरी प्रीति दिन प्रतिदिन नवीन ही बनी हुई है। अर्थात उसमे मुभ्कको नित्य नए आनन्द की प्राप्ति होती है। अलंकार-(।) रूपक--देवर भरम।

      (॥) पुनरूत्त्कि प्रकाश-- दिन दिन।

विशेष (।) रहस्यबादी रौली पर दाम्पत्य प्रेम का सुन्दर चित्रण है। (॥) प्रेम भत्त्कि एव ज्ञान दशा का मार्मिक वर्णन है। (॥।)नाथ सम्प्रदाय के प्रतीको का प्रयोग है। (।v)भगवान की कृपा का उल्लेख 'पुष्टि भक्त्ति' के प्रभाव का व्यजक है। (३०५) हो बलिया कब देखोंगी तोहि। अह निस आतुर दरसन कारनि,ऐसी ब्यापै मोहि॥टेक॥ नैन हमारे तुम्ह कू चाहैं, रती न माने हारि। बिरह अगिन तन अधिक, जरावै ऐसी लेहु बिचारि॥ सुनहुं हमारी दादि गुसाई,,अब जिन करहु बधीर। तुम्ह धीरज मै आतुर स्वामीं काचै भांड नीर॥ बहुत दिनन के बिछुरे माधो,मन नहीं बाधै धीर। देह छतां तुम्ह मिलहु कृपा करि आरतिवत कबीर॥ शब्दार्थ-दादि=दाद,विनती। वधीर=वधिरता,अनसुनी।भाडै=वर्तन।छता=अछत,रहते हुए।आरतिवत=दुखी। सन्दभ--कबीर की जीवात्मा प्रभु-दर्शन के लिए अपनी आतुरता व्यक्त्त करती है। भावार्थ--हे भगवान!मैं आपकी बलिहारी जाती हुँ। मैं आपके दर्शन कब कर सकूगी? आपकी विरह मे वियोग व्यथा मुभ्क इतना सता रही है कि तुम्हारे दर्शनो के लिए मैं दिन-रात व्याकुल रह्ती हूं।मेरे नेत्र केवल तुम्हे ही देखना चाहते हैं और इसमे वे रत्ती भर भी पीछे हट्ने को तय्यार नही हैं।विर-हाग्नि मेरे शरीर को बहुत जलाती है।इस बात पर आप विचार करलें(कही ऐसा न हो कि मैं इसके कारण जल कर मर जाऊँ और आपको दर्शन न देने का पछतावा।