ग्रन्थावली ] [ ७४३
आपसे न मिल सकने के कारण मेरा मन एक दम गिर गया है । इस उदासी को दूर करने के लिए मैं अपने पति माधव का सान्निध्य चाहती हू । उनकी बाट देखते हुए मैं सारी रात व्यतीत हो जाती है । मेरी शय्या तो बाघ की तरह प्रतीत होती है । जब भी उस पर लेटना चाहती हूँ, तब ही वह मुभको काट लेने को दौडती है । हे भगवान, इस दासी की प्रार्थना सुन लीजिए और विरहाग्नि से उत्पन्न इस शरीर की जलन को शात कर दीजिए । कबीर कहते है किं अगर मुझे स्वामी राम मिल जाएँ, तो मैं उनके साथ मि नकर मगल के गीत गाऊँ ।
अलंकार-- (१) पदमैत्र-हिल मिल । तन मन प्रान । (२) रूपक-स्यघ भई है। विशेष- (१) प्रभु के प्रति दाम्पत्य प्रेम परक विरह-व्यथा का मार्मिक
वर्णन है ।
(२) सूफियों की शैली पर जीवात्मा के विरह की व्यजना है । (३) इस पद में भक्त कांमृ यो की पद्धति पर मनोराज्य' की अभिव्यक्ति
देखी जा सकती है । यथा--
मैं हरि बिन क्यों जिऊँ री माइ । * * *
पिय बन-बन गयी, कहूँ मुरली धुनि आइ । मीरां के प्रभु लाल गिरधर ! मिलि गये सुखदाइ ।
तथा--- नन्हीं नन्हीं बून्दन मेहा बरसै, शीतल पवन सुहावन की । मीरा के प्रभु गिरधर नागर, आनन्द-मगल गावन की । (मीराबाई)
(४) जीवात्मा का ब्रहा से तदाकार हो जाना ज्ञानमागियों के निकट परम
पुरुषार्थ है । परन्तु भक्त और रहस्यवादी का दृष्टिकोण थोडा सा भिन्नता के लिए रहता है । वह ब्रहा के साक्षात्कार से उत्पन्न रागात्मक अनुभूति में तन्मय होना चाहता है । कबीर के इस पद में ज्ञान, भक्ति और रहस्य भावना तीनों का समन्वय दिखाई देता है । इस त्रिवेणी का सस्पर्ण ही ज्ञानी भक्त कबीर का सर्वस्व है । दाम्पत्य भाव का रूपक इस अनुभूति को व्यक्त करने का सबसे अधिक सफल एव सशक्त माध्यम है । कबीर ने इसी पद्धति का अवलम्बन किया है ।
(५) प्राण समाई-पति परमेश्व्रर् के विभिन्न गुणों में तदृ-दृ य होकर रसा- स्वादन करने की व्यजना है । (६) रने विहाई-"रैन" का अर्थ यदि मौह-निद्रा हो, तो इसके द्वारा अज्ञान मय जीवन की सुन्दर व्यजना हुई है । कही अज्ञान निद्रा फिर से सताने लहि-इनी कारण कबीर ने 'चितवत् रैन विहार- वाली बात कही है । यथा-
मैं विरहिणी बैठी जागू" जागत सब सोवै रो आली।
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तारा गिण-गिण रैन बिहागी सुख की घडी कब आवै ।