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[ कबीर
 

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, मिलि कै विछुणि न जावै ।

(मीराबाई)

(७) सेज "'तब खाई-यह लौकिक विम्ब-विधान दृष्टव्य है । शय्या माया रूप है ।

(८) या " "'राम राई-लौकिक प्रेम के प्रतीकों के माध्यम से आध्यात्मिक विप्रलंम्भ का वर्णन है ।

( ३०७ )

बालम आव हमारे ग्रेह रे,
तुम्ह बिन दुखिया देह रे ॥ टेक ॥
सब को कह तुम्हारी नारी, मोकों" इहै अदेह रे ।
एकमेक ह्वै सेज न सोवै तब लग कैसा नेह रे ॥
आन न भावै नींद न आवे, ग्रिह बन धरै न धीर रे ।
ज्यू' कांमीं कों काम प्यारा, ज्यूं" प्यासे कू' नीर रे ॥
है कोई ऐसा परउपगारी, हरि सू' कहै सुनाइ रे ।
ऐसे हाल कबीर भये हैं, बिन देखे जीव जाइ रे ॥

शब्दार्थ-अदेह=अदेशा, दुख, अथवा संदेह । आन=अन्न ।

संदभ-कबीरदास प्रेमी भक्त की विरह व्यथा का वर्णन करते हैं ।

भावार्थ-जीवात्मा वियोगिनी पत्नी के रूप मे अपने पति भगवान को बुलाती हुई कहती है कि, हे प्राण वल्लभ, तुम हमारे घर आओं । तुम्हारे वियोग से यह शरीर अत्यंत दुखी है । सब लोग मुझे तुम्हारी पत्नी कहते हैं और आप मुझे दर्शन तक नही देते है । मुझे इसी वात का बहुत दु ख है । अथवा मुझको इनके इस कथन पर विश्वास नहीं होता है, क्योंकि जब तक मैं तुम्हारे साथ आलिगन में आबद्ध होकर एक ही चारपाई पर न सोएं तब तक कैसे विश्वास किया जाए कि हमारे बीच में दाम्पत्य-सम्बन्ध है अथवा आप मुझको पत्नी के रूप में प्रेम करते हैं ? न तो मुझे भोजन अच्छा लगता है और न मुझको नीद ही आती है । घर में अथवा वन मे कही भी मेरे मन को धैर्य (चैन) धारण करते नहीं बनता है । जैसे कामी पुरुष को अपनी वासना की तृप्ति का माध्यम प्रिय होता है तथा जल के प्रति प्यासे व्यक्ति की आसक्ति होती है, उसी प्रकार मुझे अपने प्रियतम के प्रति अदम्य आसक्ति सताती है । क्या कोई ऐसा उपकारी है जो मेरी यह विरह-व्यथा भगवान को सुना दे । कबीर कहते है कि भगवान की साक्षात्कार के बिना मेरी दशा बहुत ही दयनीय हो गई है । पति-परमेश्वर के दर्शन के विना मैं मरणासन्न हो रहा हूई-मेरे प्राण चाहे जव निकल सकते हैं । अलंकार-उटाहरण-ज्यु नीर रे ।

विशेष- (1) प्रतीक विधान द्वारा आत्मा-परमात्मा के दाम्पत्य प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति है । बालम, गेह, नारी, सेज इत्यादि प्रतीक है ।