पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४३३

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कबीर

होती है और उन्हीं को भस्म कर देती है, उसी प्रकार कामग्नि प्राणी में ही द्देत्पन्न होती है और उसी को नष्ट कर देती है । भगवान रूपी केवट के बिना इस संसार रूपी सागर से कोई पार नहीं कर सकता है । विना भगवान के तू किस प्रकार पार जा सकेगा 7 कबीरदास समझाकर कहते हैं कि भगवान के गुणगान के सहारे ही सुख-पूर्वक र्ज वन व्यतीत किया जा सकता है । राम के नाम-स्मरण द्वारा प्राप्त होने वाला रस बडा ही मीठा होता है, उसको बारम्बार पीना चाहिए अर्थात् भगवान का नाम-स्मरण निरन्तर करतै रहना चाहिए ।

अलंकार - (1) रूपक-भौजलि , भौ ।

(गा रूपकातिशयोक्ति …वोहिथ, दू दै, खेवट । (111) पुनरुक्ति प्रकाश-बार-बार ।

(जि) उपमा-बालक की नाई, सुवटा की नाई । (७) दृष्टान्त----. ' दहै रे ।

(प्रा) वक्रोक्ति-कवन गहै रे ।

विशेष--") इस पद से कबीर की भक्ति-भावना व्यक्त है ।

(11) नलिनी को सुवटा -तोतो को पकडने के लिए शिकारी बाँस की पोनिया लटका देते हैं । जैसे ही तोता पीनी पर बैठता है, वैसे ही पीनी घूम जाती है और तोते का सिर नीचे और पांव ऊपर हो जाते हैं । इस पीनी को ही नलिनी कहते हैं । तोता पौनी को छोडता नहीं है और डर के मारे वही लटकता रहता है । इसी प्रकार जीव भी-डद्धार की सामव्यं होते हुए भी ससार के प्रति आसक्त बना रहता है । अज्ञान वश ससार में आबद्ध जीव को 'नलिनी का सुवटा' कहना कवि' परम्परा है । यथा-

अपनपो, आपुन ही बिसरयो । व्य ४ ४ मरकट मू३ठि छांडि नहि दीनी, धर-वर द्वार फिर्र्यौ । सूरदास, नलिनी को सुवटा, कहि, कौने पकन्दूयो । (सूरदास) (111) कबीर ने अनन्य भक्ति पर जोर दिया है । ( ३ ११ )

चलत कत ज्यों टेढौ टेढौ रे ।

नऊ' दुवार नरक धरि मूदे, तु दुरगंधि को बैढौ रे टेका। जे जारै तो होइ भसम तन, रहित किरम्जल खाई है सूकर स्वरेंन काग की भखिन, तामैं कहा भलाई ।।

फूटे नैन हिरदै नाहीं सूझे, मति एकै नही जानी । मया मोह ममिता सू' बां९श्री, बूडि सूती बिन पत्नी ।। वारु के घरवा में बैठी, चेत्तत नहीं अयांनां है

कहै कबीर एक रांम भगती बिन, बूते बहुत सयांनां ।।