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ग्रन्थावली] [७४६

  शब्दार्थ-नरक= मल,मला। मूंदे= आपूरित। बंठो= ढेर,थाला। किरम= कृमि,कीडे। भिखन= भोजन। मुवौ= मर गये।
  सदर्भ- कबीर शरीर की असारता बताकर राम भक्ति का प्रतिपादन करते हैं।
  भावार्थ- रे मानव, तुम क्यो इतरा रहे हो? तुम्हारे शरीर की इन्द्रियो रूपी नौ द्वार (दो आँख, दो कान, दो नासा-हार, मुख तथा मल मूत्र के द्वार) मैले से भरे हुए है और इस प्रकार तू गन्दगी का ढेर अथवा पाला है। मरने पर यदि इस शरीर को जल्लया जाएगा, तो यह भस्म का ढेर हो जाएगा और जो शेष बचेगा,उसको जल के किडे-मकोडे खाएँगे। यह शरीर, सुअरो, कुत्ते तथा कौओ का भोजन है। इस पर गर्व करने से क्या लाभ है? संसार की यह निस्सारता देखने के लिए तुम्हारी आँखे फुट गई हैं, ह्रदय मे तुम्हे इसकी अनुभूति नही होती है तथा ज्ञान की बातो से तुम्हारा कोई सम्बन्ध नही। तुम माया मोह और ममता के वशीभूत बना हुआ है और इस प्रकार तुम इस संसार सागर मे बेना पानी के ही (अकारण ही)डूब गये हो। रे प्राणी,यह शरीर रेत का महल है। तुम इसमे बैठे हुए अपने आपको सुरक्षित समभ्क्ते हो।रे मूख,तुम         होश मे आकर समझते ही नही हो कि यह शरीर क्षण-भंगुर है। कबीरदास कहते हैं कि राम भक्ति का अवलम्बन ग्रहण न करने के कारण बहुत से तथा कथित चतुर (पुनियादार) लोग इस भवसागर मे डूब गये।
   अलंकार- (१) गूढोक्ति- चलत   रे।
         (२) रूपकातिशयोक्ति- नव द्वार। वारू के घरवा
         (३) छेकानुप्रास- दुवार,दुरगधि।
         (४) वत्र्कोक्ति- तामै    भलाई।
         (५) विभावना- बूडि    पानी।
         (६) विरोधाभास-बूडे सयाना।
   विशेष-(१)बूढे बिन पानी- वस्तुत यह संसार अमतू है।इसमे विषय जल भी परमार्थत है नही। जीव मिथ्या विषयो मे ही डूबा रहता है। यही बिना जल के भव-सागर मे डूबना है।
       (२)बारू के घरवा मे बैठो- समभाव देखें-
   मोम को मन्दिर माखन को मूनि बैठो हुतासन आसन दीन्हे।
                  (३१२)
      अरे परदेसी पीव पिछांनि।
    कहा भयौ तोकौं समझि न परई,लागी कैसी बांनि।|टेक||
    भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ,कहा कियो कहि मोहि।
    लाहै कारनि मूल गमावै, समझाकत हुँ तोहि||