७५०] [कबीर
निस दिन तौहि क्यु नीद परत है,चितवत नांही ताहि जम से बेरी सिर परि ठाढे,पर हथि कहाँ बिकाइ॥ भ्कूठे परपंच मै कहा लागौ,ऊठै नांही चालि। कहै कबीर कुछ बिलम न कोजै,कौने देखी काल्हि॥ शब्दार्थ- वानि= आदत। भोमि= भूमि। बिडाणो= बिरानी,पराई।
रातो= अनुरक्त। लाहै= लाभ। काल्हि= कल का दिन।
सन्दर्भ- कबीर जीवन और जगत की और जगत की क्षण भगुरता के प्र्ति जीव को सावधान करते है।
भावाथ - रे परदेशी जीवात्मा, तू अपने प्रियतम को पहत्वान। तुम्हे क्या हो गया है। तुभ्कको अक्ल (विवेक बुध्दि) क्यो नही आती है। सांसारिक विषयो मे लिप्त रहने की तेरी यह क्या आदत पड गई है। तु पराई भूमि मे क्यो अनुरक्त हो गये हो। मुझे बताओ तो सही कि इस प्रकार आसक्त होकर तुमको क्या लाभ हुआ है। सांसारिक विषयो के सुख रूपी लाभ के लोभ मे तुमने अपने मूलधन रूपी सहज शुध्द बुध्द स्वरूप को भी नष्ट कर दिया है। यह बात मै तुमको समझाकर कहता हूँ। तुम्हे रात दिन नींद क्यो आती है अर्थात तुम सदैव अज्ञान के वशीभूत हुए परम तत्व को क्यो भूले रहते हो? तुम उस परम तत्व को जानने का प्रयत्न क्यो नही करते हो? तेरे सिर पर यमराज सहश प्रबल शत्रु खडा हुआ है और तू अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर माया के हाथो क्यो बिक गया है। हे जीव तुम संसार के इस झूठे प्रपंच मे क्यो फसे हुए हो? संसार के विमुख होकर भगवान की भक्ति करने के लिए क्यो नही चल पडते हो? कबीर कहते है कि ईश्वर भक्ति मे देर मत करो। इस कार्य को अभी और यही करो। कल किसने देखा है अर्थात कल का क्या भरोसा है?
अलंकार-गूढोक्ति- सम्पूर्ण पद विशेष- (१)प्रतीको का प्रयोग है- परदेशी, पीव,भोमि बिडाणी,भूल। (२)संसार की क्षण भंगुरता का प्रतिपाठन है। (३)शात रस की व्यंजना है। (४)परदेशी- मूल स्थान ब्रम्हा से बिछुड कर जगत मे आने वाली जीवात्मा परदेशी है। (५)पराई- जीवात्मा का निवास स्थान तो ब्रम्हा है। संसार तो माया का निवासस्थल है। इसी कारण वह जीवात्मा के लिए पराई भूमि है। (६)कहा कियो कहि मोहि- इस कथन मे जीवात्मा की भारी भूल अभिव्यंजित है। (७)जम से बैरी- समभाव देखें-- जम करि गृंह नरहरि परयो,महि घरि हरि चित लाउ। विषय वुधा अजहूँ तजयौ नरहरि के गुन गाउ। (बिहारी)