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ग्रन्थावली ] [७५१

(VIII) ऊठे नाही चालि- अन्तर्युखी होने की ओर सकेत है । यथा-

ही अपनायी तब जानिही जव मन फिरि परिहै । तथा-सन्मुख होहिं जीव मोहि जव ही । जन्म कोटि अध नासहिं तब ही ।

                              (गोस्वामी तुलसीदास)

(i) कौने देखी काल्हि । इस भाव को व्यक्त करने वाले अनेक कथन लोक से प्रचलित है । यथा- (क) जिसके बीच- में रात । उसकी क्या बात ? (ख) सामान सौ बरस का, पल की खबर नही । (ग) करना है सो आज कर, आज करै सो अब । पल में प्रलय होयगी, बहुर करेगा कब ? (कबीर)

            ( ३१३ )

भयौ रे मन पाँहुनडौ दिन चारि । आजिक काल्हिक माँहि चलैगो, ले किन हाथ सँवारि ।।टेका। सोंज पदृरई जिनि अपणावै, ऐसी सुणि किन लेह । यहु ससार इसौ रे प्रांणी, जैसी धुवरि मेह ।। तन धन जोबन अंजुरी की पानी, जात न लागे बार॥ सेबल के फुलन परि फूल्यौ, मरब्यौ कहा गबार ।। खोटी खाट खरा न लीया, कछून जानी साटि । कहै कबीर कछू बनिज न की गै, आयो थौ इहि हाटि ।। शब्दार्थ-पाहुँनडो =पाहुना, मेहमान । सौन =सम्पत्ति । धू वरि =धुआँ। खाटए =किया । साटि =विनिमय । वनिज =व्यापार । हाटि =बाजार। सन्दर्भ- कबीरदास जीवन की निस्सारता का प्रतिपादन करते हैं । भावार्थ-- रे जीव, तुम इस ससार में चार दिन के मेहमान हो । आज-कल से ही तुमको इस ससार से चला जाना है । फिर तुम अपने हाथों को बुरे कामो सेक्यों नहीं हटा लेते हो ? तुम पराई वस्तुओं के प्रति आसत होने की चेष्ठा मत करी (यह ससार तुम्हारा घर नही है । और ब इसकी वस्तुएँ तुम्हारी क्यों कर हो सकती हैं ?) । तू मेरी इप सदाह को क्यों नहीं सुनता है ? रे प्रापो यह ससार तो धुए के समूह द्वारा निर्मित बादल के समान है, जो न जल देता है, न शीतलता । वह तो केवल धोखा ही है । शरीर, सम्पत्ति और यौवन अजलि में भरे हुए जल के समान है, जो धीरे-धीरे रिसकर स्वयमेव शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। इस ससार का वैभव सैमर के फूल की तरह है जिसका वाह्य तो वहुत आकर्षक है, परन्तु जिसमे सारतत्व बिल्कुल नही है । इस मिथ्या एव सारहीन सांसारिक वैभव के ऊपर है अज्ञानी । तू क्यों गर्व करता है ? तूने विषय वासना रूपी खोटी वस्तुओं का तो सग्रह किया और ज्ञान-मुक्ति रूपी, खरी वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया । तुम्हे जीवन से विनिमय करना नही अश्या अर्थात् तुम्हे यह ज्ञान नहीं हुआ