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७५४] [कबीर'

  सन्दर्भ-- कबीर जीवन की नश्वरता एव रागे-सम्बन्धियों के साहचर्य की 

क्षणिकता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए जीव को भगवत्भजन की प्रेरणा देते हैं।

  भावार्थ-- यह सुन्दर प्राणी आपना जीवन-दाव खेलकर अब जा रहा है।

उसकी एक मुट्ठी में आटे का पिण्ड है और एक हाथ उसकी काठी(जनाजे)पर रख दिया गया है। परन्तु यह आटे का पिण्ड भी किसी के साथ नहीं जाता है। घर की देहरी तक पत्नी सगी रहती है अर्थात् देहरी तक रोती हुई पत्नी जाती है और दरवाजे तक माता सगी रहती है। सब कुटुम्बी लोग शमशान तक जाते हैं, परन्तु आगे की यात्रा में यह जीव अकेला ही जाता है। ये सब सगे-सम्बन्धी, नगर, बाजार कहाँ साथ जाते हैं? वे सब यही रह जाते हैं। इन सबसे फिर मिलना नहीं होता है। कबीर कहते हैं कि इन सब बातों पर विचार करके जगत के स्वामी भगवान का भजन करो। भजन के बिना यह जन्म व्यर्थ ही जा रहा है।

          आलंकर-(1) आनुप्रस--मुठी मठि मठिया ।
                 (11) पदमैत्री--मठिया कठिया ।
                 (111) गूढ़ोक्ति-(1)कहाँ वे   ॱॱॱपरण ।
         विशेष--शात रस की व्यजना है। 'निर्वेद' भाव का परिपाक दृष्टव्य है।
         (11) फलसा का पाठान्तर 'दुआरै' है। इसीसे इसका अर्थ 'द्वार' कर

दिया है।

         (111) प्राणी लाल औसर चल्यौ रे बजाय। डॉ० माताप्रसाद गुप्त ने इस

पक्ति का अर्थ इस प्रकार किया है। औसर-अवसर-नृत्य-सगीतादी की सभा है। 'लाल' है लत्लक्क-रवपूर्ण। रे प्राणी, तू रवपूर्ण अवसर(सगीत का कार्यक्रम) बजाकर अब वापिस चल पड़ा है। उनके द्वारा इस अर्थ की कल्पना का आधार यह पाठान्तर है--चारि दिन आपनी नउवती चले बजाई।"

         हम तो 'लाल' का अर्थ महाशय करते हैं। हे प्राणी लाल अथवा प्राणी

महाशय' कह कर तीव्र संबोधन की व्यजना की गई है। बजाई का अर्थ है-- 'अजाम देकर'। अर्थ होगा--तुमको जो मानव जन्म देकर एक श्रेष्ठ अवसर प्रदान किया गया था, उसको पूरा करके हे प्राणी महाशय चल दिए और तुमने इस जन्म को व्यर्थ गवा दिया। जो समय बचा है, उसीमें भगवान का नाम लेलो। इसी भाव को अभिप्रेत मानकर हमने उपर्युक्त अर्थ किया है। हमारे विचार से उपर्युक्त अर्थ ही युक्तियुक्त है। डॉ० गुप्त द्वारा किए गए अर्थ में हमको खीचतान अधिक दिखाई देती है। नोवत बजाने वाली कबीर की यह साखी इस प्रकार है--

            कबिरा नोवत आपनी दिन दस लेहु वजाय।
            ये पुर पहन ये गली वहुरि न देखो आय।     
                       (३१६)
         रांम गति पार न पावै कोई ।
        च्यन्तामणि प्रभु निव टि छाड़ि करि, भ्रंमि भ्रमि मति बुधि खोई ॥टेक॥