ग्रन्थावली ] [ ७५७
जटा-जुट बाँध बाँध कर मर गये, परन्तु किसी को भी मोक्ष की प्राप्ति नही हूई। कविगण कविता करके मर गये , तीर्थ यात्री केदारनाथ में जाकर मर गये , जन मताबमबी व्रती साधुओं ने बाख नोच नोच कर प्राण दे दिए,परन्तु इनमे से भी किसी को मोक्ष की प्राप्ति नही हुइ । धन एकत्र करते हुए और बहुत सा स्वर्ण बटोरते हुए राजे मर गये , वेदों क अध्ययन करते हुए पंडित मर गये , रूप के अहकार में नरियाँ मर गयी , परन्तु उद्धार किसी का नही हुआ । जो व्यक्ति भगवान से मिलने की युक्ति जानना चाहते हैं , वे अपने शरीर के भीतर ही भगवान ( परम-तत्व ) को खोजते हैं। जुलाहा कबीर कहता है कि जो व्यक्ति अपने घर के भीतर भगवान को खोजते हैं उन्हे निश्चित रूप से मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
अलंकार - (१) रूपक - संसार धध कुहेरा । (२) पुनरुति प्रकाष = पूजि पूजि , बोघि बोघि , लू चि लू चि । (३) वृत्यानुप्रास- कवि कविनै कविता कापडी । विशेष - (१़) धध कुहेरा - " असत् एवं अचित " अभिप्रेत है । (२) वाह्याचार की निर्थकता प्रतिपादिन है । (३) अह-भावना एवं आ क्ति के प्रति तीव्र विरोध व्यकत है। (४) जुलाहा - जात्याभिमानियों के प्रति व्यग्य है । (३१८) कहू रे जे कहिबे की होइ। नां को जानै नां को माने , ताथे अचिरज सोहि ॥ टेक ॥ अपने अपने रंग के राजा , मोनत नांही कोई । अति अभिमांन लोभ के घाले , चले अपन पौ खोई ॥ मैं मेरी करि यहु तन खोयो , समझत नहीं गवार । भौजलि अधफर थाकि रहे हैं , बूड़े बहुत अपार । मोहि आज्ञा दई दयाल दया करि काहू कू समझा । कहै कबीर मै कहि हार्यौ , अब मोहि दोस न लाइ ।
शब्दार्थ- घाले = मारे हुए, वशीभूत । भोजल= भव जल, भवसागर। अधफर=फर=युद्ध- लक्षण से मार्ग । संदर्भ- कबीरदास संसार के व्यक्तियों के अज्ञान के प्रति अपना क्षोभ प्रकट करते है । भावार्थ - मै तो वे ही बातें कहता हूँ जो कहने योग्य होती है । परंतु उनको न तो कोई समझता है और उन पर कोई विश्वास ही करता है । इसी से मुझे आश्चर्य होता है । सभी लोग अपने अपने रग में मस्त हैं । इसी लिए कोई मेरी बात को मानता नही है । वे अत्यन्त अभिमान और लोभ के वशीभूत है । उन्होनें अपनत्व को खो दिया है अर्थात वे अप्ने शुद्ध आत्म-स्वरूप को भूल गये है ।
ये मूखं वास्तविकता तो समझते हैं । उन्होनें " मैं और मेरी " के फेर में ही