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३५८ ] [ कबीर

अपना समस्त जीवन नष्ट कर दिया है । ये लोग भव-सागर से आधे रास्ते पर पहुँच कर थक गये हैं और इनमे बहुत से तो इस भव-सागर में डूब चुकें हैं । कबीर कहते हैं कि दयालू भगवान ने कृपापूर्वक मुझको आज्ञा दी है कि मैं भव-सागर में डूबते हुए इन व्यक्तियों में कुछ को तो विवेक-युद्धि दे दूं। मैं कह-कह कर थक गया हूँ। मेरी बात कोई नही सुनता है। अत: अब मुझको कोई दोष न दे ( कि मैने अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं किया ) ।

          अलंकार - (१) पदमैत्री- ना जानै, ना मानै, घाल चले ।
                  (२) पुनरुक्ति प्रकाश- अपने अपने ।
                  (३) वृत्यानुप्रास - दई, दयाल, दया, करि काहूँ कूँ ।
                  (५) छेकानुप्रास - अति अभिमान ।
                  (६) रूपक- भौजलि ।
                  (७) पुनरुक्तिवदाभास - बहुत । अपार ,
         विशेष - (१) रग के राजा - मुहावरा है - तुलना करे -
         मारग सोइ जाकहँ जो भावा । पंडित सोई जो गाल बजावा ।
                                     (गोस्वामी तुलसीदास)
         यह लोकोक्ति भी प्रचलित है - " अपनी अपनी ढ़फली और अपना अपना राग । "
                (२) विभिन्न साधनाओं में पड़े हुए मानव अपने जीवन को नष्ट करते रहते हैं - यही इस पद का अभिप्रेत अर्थ है । यही बात गोस्वामी तुलसीदास ने कही है -
                 श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ सजुत विरित विवेक ।
                 जे परिहरहिं विमोह बस कल्पहिं पथ अनेक      ।
                (३) कबीर को ज्ञानोपदेश की प्रेरणा भगवान की मंगल - विधायिनी शक्ति से प्राप्त हुई थी । इस कथन में कबीर का आत्मविश्वास भी व्यक्त है, साथ ही उनकी गर्वोक्ति की छाय भी है । ये दोनों तत्व कबीर के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रकाश डालते हैं । कबीर पूरे आत्मविष्वास के साथ यह मानते थे कि उन्हे आत्म-साक्षात्कार हो गया था तथा वह परमात्मा के संदेश-वाहक थे ।
                (४) कबीर ने उन लोगों पर गहरा व्यग्य किया है जो प्रभु के स्वरूप को जाने बिन ही उसके विषय को में तरह-तरह की बातें कहते रहते हैं ।
                                 (३१६)
                  एक कोस बन मिलांन ने मेला
                  बहुतक भाँति करै फुरमाइस, है असत्रार अकेला ॥ टेक ॥
                  जोरत कतक जुधेरत सब गढ़ करतब झेली झेला ।
                  जोति कटक गढ़ तोरि पातिसाह, खेलि चल्यौ एक खेला ॥