पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४४५

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(iv) ले मठी उडाना- समाधिस्थ चेतना द्वारा वह ब्रह्मलीन हो जाता है-

               झल उठी भोली जली खपरा फूटिम फूटि ।
               जोगी था सो रमि गया, आसन रहीं विभूति ।
                             राग मारू
                             ( ३२० )
              मन रे रांम सुमिरि, रांम सुमिरि, रांम सुमिरि भाई ।
              रांम नांम सुमिरन बिनां, बूड़त्त है अधिकाई ।। टेक ॥
               दारा सुत ग्रेह नेह, सपति अधिकाई । 
               यामै कछू नांहिं तेरी, काल अवधि आई ॥ 
               अजामेल गज गनि-का, पतित करम कीन्हां । 
               तेऊ उतरि पारि गये, रांम नांम लीन्हां ॥
               स्वान सूकर काग कीन्हों, तऊ लाज न आई ।
               रांम नांम अमृत छाडि, काहे बिष खाई ॥ 
               तजि भरम करम विधि नखेद, रांम नांम लेहीं
               जन कबीर गुरु प्रसादि, रमि करि सनेही ।।
           शब्दर्थ--नरवेद==निषेघ । दारा=स्वी । करम==कर्म-काण्ड ।
           सदर्भ--स्कबीर राम-नाम कौ महिमा का प्रतिपादन करते हैं ।
           भावार्थ--रे मेरे भाई मन, राम का स्मरण करो, राम का स्मरण करो,
   राम का स्मरण करो । राम नाम के स्मरण के बिना इस भव सागर मे और अधिक
   डूब जाओगे अर्थात् माया मोह मे अधिकाधिक लिप्त होते जाओगे । स्वी, पुत्र, घर
   एव इनके प्रति स्नेह तथा अतुल सम्पत्ति इनमे तेरा कुछ भी नही है । अपना समय
   आने पर ये सव नष्ट हो जाएँगे । अथवा तेरे जीवन की अवधि समाप्ति के निकट
   आ रही है और ये सब तुझ से छूट जाएँगे 1 अजामिल, हाथी और पिंगला वेश्या ने
   नीच कम्ं  किए  है । परन्तु राम का नाम लेने से वे भी ससार-सागर के पार हो गए।
   अर्थात् उनका भी उद्धार हो गया । रे जीव, तुम कुत्ता, सूअर, कौआ आदि जैसी
   निम्न योनियो में भटक चुके हो, परन्तु तुमको तव भी पाप कर्म करते हुए शर्म नही
   आती है । तुम राम भक्ति रूपी अमृत को छोडकर विषयासक्ति रूपी विष का सेवन
   करते हो । तुम अन्य साधनाओं के द्वारा उद्धार की सम्भावना के भ्रम तथा कर्म
   काण्ड के विधि-मधि को छोडकर राम के नाम का स्मरण करों । भक्त कबीरदास
   कहते हैं कि तुम गुरु की कृपा-प्राप्त करों और भगवान राम के प्रति अनुरक्त
   हो जाओं।
       अलका:- (i)  पुनमक्ति प्रकाश--राम सुमिरि की आवृति ।
             (ii) गूढोवित--तेऊ पार--लीन्हा ।
            (iii) रूपक--राम नाम अमृत ।