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(iv) ले मठी उडाना- समाधिस्थ चेतना द्वारा वह ब्रह्मलीन हो जाता है-
झल उठी भोली जली खपरा फूटिम फूटि । जोगी था सो रमि गया, आसन रहीं विभूति ।
राग मारू ( ३२० ) मन रे रांम सुमिरि, रांम सुमिरि, रांम सुमिरि भाई । रांम नांम सुमिरन बिनां, बूड़त्त है अधिकाई ।। टेक ॥ दारा सुत ग्रेह नेह, सपति अधिकाई । यामै कछू नांहिं तेरी, काल अवधि आई ॥ अजामेल गज गनि-का, पतित करम कीन्हां । तेऊ उतरि पारि गये, रांम नांम लीन्हां ॥ स्वान सूकर काग कीन्हों, तऊ लाज न आई । रांम नांम अमृत छाडि, काहे बिष खाई ॥ तजि भरम करम विधि नखेद, रांम नांम लेहीं जन कबीर गुरु प्रसादि, रमि करि सनेही ।।
शब्दर्थ--नरवेद==निषेघ । दारा=स्वी । करम==कर्म-काण्ड । सदर्भ--स्कबीर राम-नाम कौ महिमा का प्रतिपादन करते हैं । भावार्थ--रे मेरे भाई मन, राम का स्मरण करो, राम का स्मरण करो, राम का स्मरण करो । राम नाम के स्मरण के बिना इस भव सागर मे और अधिक डूब जाओगे अर्थात् माया मोह मे अधिकाधिक लिप्त होते जाओगे । स्वी, पुत्र, घर एव इनके प्रति स्नेह तथा अतुल सम्पत्ति इनमे तेरा कुछ भी नही है । अपना समय आने पर ये सव नष्ट हो जाएँगे । अथवा तेरे जीवन की अवधि समाप्ति के निकट आ रही है और ये सब तुझ से छूट जाएँगे 1 अजामिल, हाथी और पिंगला वेश्या ने नीच कम्ं किए है । परन्तु राम का नाम लेने से वे भी ससार-सागर के पार हो गए। अर्थात् उनका भी उद्धार हो गया । रे जीव, तुम कुत्ता, सूअर, कौआ आदि जैसी निम्न योनियो में भटक चुके हो, परन्तु तुमको तव भी पाप कर्म करते हुए शर्म नही आती है । तुम राम भक्ति रूपी अमृत को छोडकर विषयासक्ति रूपी विष का सेवन करते हो । तुम अन्य साधनाओं के द्वारा उद्धार की सम्भावना के भ्रम तथा कर्म काण्ड के विधि-मधि को छोडकर राम के नाम का स्मरण करों । भक्त कबीरदास कहते हैं कि तुम गुरु की कृपा-प्राप्त करों और भगवान राम के प्रति अनुरक्त हो जाओं। अलका:- (i) पुनमक्ति प्रकाश--राम सुमिरि की आवृति । (ii) गूढोवित--तेऊ पार--लीन्हा । (iii) रूपक--राम नाम अमृत ।