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७६२] [कबीर

                                 (३२१)
                   रांंम नांम हिर दै धरि, निरमोलिक हीरा।
                   सोभा तिहुं लोक,तिमर जाय त्रिबधि पीरा ॥टके ॥
                   भिसनं नै लोभ लहरि, काम क्रोध नीरा।
                   मद मछर कछ मछ, हरषि सोक तीरा॥
                   कांमनी अरू कनक भ्रवर बोये बहु बीरा।
                   जन कबीर नवका हरि, खेवट गुरु कीरा॥
         शब्दाथ॔-- निरमोलिक--अमूल्य, बहुमूल्य । तिमर=तिमिर, अन्धकार, अञान। वोये=ङुयोये। कीरा=कीट=शुकदेव। यदि पाट कोरा हे, तो अथ॔ 'केवल' होगा।
        सदर्भ-- कबीरदास गुरुप्रसाद ओर हरि क्रपा द्वारा भव सागर पार करने का उपदेश देते हे।
        भावार्थ--कबीरदास कहते हे कि रे जीव, तुम ह्रदय मे राम नाम रूपी बहुमूल्य हरि को अपने ह्रदय मे घारण करे। इससे तीनो लोकों मे तेरी शोभा(इज्ज्त) होगी तथा तेरा अञानान्धकार एव तेरे तीनो प्रकार(दैहिक,दैविक,भौतिक) कष्ट नष्ट हो जाए गे।(भव सरिता मे)काम ओर क्रोध रूपी जल भरा हुआ हे,इसमे लोभ ओर तृष्ण की लहरे उठती रहती हे, इसमे मद ओर मत्स्राररूपी मछ्लियाँ ओर कछुए हे, सुख ओर दुःख इसके किनारे हे तथा ओर कामिनी ओर कचन रूपी भैवरे पङ रही हे। इस भव नदी मे अनेक वीर ङूूब चुके हे। भगवान के भक्त कबीरदास कहते हे कि भव-नाम की नाव तथा गुरु शुकदेव रूपी केवट के सहारे ही इसके पार किया जा सकता हे। अथवा यह कहिये कि इसके पार करने के लिए भगवन्नाम ही नाव हे ओर केवल गुरु ही इस नौका क केवट हे।
        अलंकार---(I) साग रूपक-पूरा पद।
                (II) व्यतिरेक की व्यजना--निरमोलक हीरा।
                (III) छेकानुप्रास--निमिर, त्रिविघ। लोभ लहरि, काम क्रोध,मद मछुर।
                (IV) पद्मैत्री--कछ मछ।
                (V) वृत्यानुप्रास--बोये बहु बीरा।
                (VI) श्लेष पुष्ट रूपक--तिमर
         विञोप--(।) त्रिविघ परि--दैहिक=शारीरिक । दैविक=देवकृष्ट । भौतिक=अत सम्वन्धी।
               (॥) त्रिपना--तृष्णा मोग की इच्छा,अप्राप्त वस्तु को पाने की तीव्र इच्छा। बुध्द ने इनी को 'तनहा' कहा हे। इसी के वशीभूत होकर जीवत्मा जन्म घारण करने को प्रेरित होत हे।