पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/४५०

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अब हम जगत गीहन ते भागे,

     जग की देखि गति राँमहि ढूरीं लागे ॥ टेक ॥

अयांन पाने थे वहु बौरानों, सँमझि परी तब फिरि पछिताने । लोग कहौ जाके जो मनि भावे, लहै भुवमग कौन डसावे ॥ कबीर बेचारी इहै डर डरियि, कहै का हो इहां नै मरिये ।

  शब्दा गोहन= गेहन, सग साथ । ढुरि लागे= ढुलक गये, भुक गये ।

अयांन= अज्ञान । भुवगम = सपे, मोह भ्रम ।

    सन्दभ कबीरदास ज्ञान-दशा का वर्णन करते है ।
 भावाथ आब मै जगत के प्रति आसवित को त्याग रहा हूँ । ससार का जो दःख दायी ढग है, उसको देखकर आब मै भगवान की ओर भुक गया हू । अज्ञान के कारण मैने माया मोह के बशीभूत होकर अनेक पागलपन के काम किये । परन्तु अब ज्ञान हो जाने पर मै अपने किए हुए कामों पर पश्चाताप कर रहा हू । मेरे बारे मे लोग जो चाहे सो कहे । परन्तू मै अब भगवद्प्रेम के मार्ग को नही छोडू गा । ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भ्रम एवं मोह रूपी सपं के डर से डरते रहना चाहिए ।

केसी के कहसे से क्या होता है? विशयासक्ति मे फंस कर अपना जीवन नष्ट नही करना चाहिए ।

अलंकार  रूपकातियोक्ति-भुवगम
        वकोक्ति पुषट निदर्शना लहै डसावै
        गूढोक्ति - कहै का हों

विशेष - ज्ञान प्रप्ति के पश्चाए विश्यासक्ति का सर्प सद्रुश भयावह प्रतीत होना सर्वथा स्वाभाविक है। विपयासक्ति और ज्ञानावस्था परस्पर विरोतधी हैं। समभाव की अभिव्यक्ति देखे-

               मै अब नाच्यो बहुत गुपाल ।
            काम क्रोध को पहिरि चोलना कष्ठ विषय की माल। [ सूरदास ]

तथा- अवलों नसानी, अब न नस्ंहो ।

मन मधुकर पन तुलसी , रघुपति-पद-कमल व

                                   [ गोस्वामी तुलसी दास ]

ऐसा ध्यान धरोइ नसहरी,

                   सवद अनाहद च्यतन करी ॥ तेक ॥

पहली खोजी पंचे बाइ, बाइ ब्यंद ले गगन समाई ॥ गगन जोति तहा त्रिकुटी सघि, रवि ससि पवनां ॥॥॥।