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ग्रन्थावली ] नांहों देखी न जइयो भागि, तहां नहों तहां रहिये लागि ॥ मन मजन करि दसवै द्वारि, गंगा जमुना सधि बिचारि ॥ नादहिं ब्यंद कि ब्यादहि नाद, नादहि ब्यद मिलै गोब्यंद ॥ गुणातीत जस निरगुन आप, भ्रम जेबडी जग कीयौ साप ॥ तन नांही कब मन नांहिं, मन परतीत ब्रम्हा मन मांहि ॥ परहरि बकुला ग्रहि गुन डार, निरखि देख निधि वार न पार ॥ कहै कबीर गुर परम गियांन,सुंनि मंडल मै धरौ धियांन ॥ प्यड परें जीव जैसे जहां, जीवन ही ले राखौ तहां ॥ शब्दार्थ-दसवै द्वारि=ब्र्म्हारन्ध । जेबडी= रस्सी । बकुला=वल्कल, त्रिगुणात्मक आवरण । ग्रहि=पकडो । गुनडार= तात्त्विक गुण । सदर्भ- कबीरदास कायायोग की साधना का वर्णन करते हैं । भावार्थ- भगवान नरहरि की सेवा इस प्रकार करनी चाहिए कि मन की दुविधाओ का मन त्याग कर दे । जहां पर तुमको कुछ भी हष्टिगोचर नही होता है, वहां भी उस तत्व वस्तु को पहचानो । उसी अगोचर तत्व मे जगत है । उसको पहचानने का प्रयत्न करो । जहां तुमको कुछ भी न दिखाई दे,वहां हे भागो मत । जहां तुमको कुछ भी दिखाई दे, वहां से भागो मत । जहां गोचर तत्व न हो, वहॉं उसकी अनुभूति प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बने रहना चाहिए । (शून्य में विराजमान परमातत्व मे अपना मन रमाओ) । मन को आसत्ति रहित करके पवित्र करो और उसको ब्र्म्हारन्ध मे पहुँचा दो । इडा और पिंगला के मिलन-स्थल (त्रिपाटी) पर ध्यान एकाग्र करो । इस प्रकार ध्यान करो कि ये नाद-रूप परमातत्व ही सृष्टि-त्त्व बिन्दु है अथवा बिन्दु ही नाद है । इनमे से कौन सा तत्व-नाद अथवा बिन्दु-यर्थाथ एव मूल तत्व है । यह भी ध्यान करो की प्राप्ति होने पर न देवी-देवता रह जाते और न पूजा एव जप र्ह जातें हैं, न भाई- बन्धु रह जाते है और न माता-पिता ही रह जाते हैं । स्वयं साधक गुणगीत होकर निर्गुण ब्र्म्हा के समान हो जाता है । यह जगत तो केवल रस्सी मे भ्रम से आरोपित सर्प सहश ही प्रतीत होने लगता है । जब सकल्प-विकल्पात्मक मन का लय हो जाता है,तब शरीर भी नही रह जाता है । (उसका पुनर्जन्म नही होता है) । आत्मस्वरूप के प्रति निष्ठा जागने पर ब्रम्हा-साक्शात्कार होने लगता है त्रिगुणात्मक उपाधियों को छोडकर तात्विक गुण की डाल पकड लो और फिर उस अनन्त परमतत्व के दर्शन करो । कबीर कहते है कि परम ज्ञानी गुरू का उपदेश है कि शून्यमण्डल मे अपना ध्यान एकाग्र करो । इस शरीर को छोडने पर जीव जिस अवस्था को प्राप्त होता है, उस अवस्था की प्राप्ती इस शरीर द्वारा ही कर लो । भाव यह है कि उपाधि के समाप्त होने पर व्यष्टि चैतन्य जिस परम चैतन्य मे लवलीन हो जाता है, शरीर धारण किए हुए ही जीव-चैतन्य की उसीं परम चैतन्य मे प्रतिष्ठा बनाए रखने की साधना ही काम्य है ।